नई जंग की शुरुआत या लड़ाई का अंत
मध्य-पूर्व में लगी आग पर दो हफ्ते से भी कम समय में पानी पड़ जाना दुनिया के लिए खुशखबरी से कम नहीं है। इससे इस्रइल और फिलिस्तीन के बीच सुलगी आग कितनी ठंडी पड़ेगी, यह भले बहस का विषय बना रहे, लेकिन फौरी तौर पर इतना जरूर होगा कि अगले कुछ दिनों या महीनों तक गाजा में गोला-बारूद का और बाकी दुनिया में तीसरे विश्व युद्ध का शोर कमजोर पड़ जाएगा।
नई जंग की शुरुआत या लड़ाई का अंत |
ग्यारह दिनों की जंग के दौरान दुनिया भर से हिंसा रोकने की आवाजें सुनाई देती रहीं, लेकिन आखिरकार काम पड़ोसी ही आया। 200 से ज्यादा जिंदगियों के बेरंग होने के बाद ही सही, लेकिन मिस्त्र की पहल पर इस्रइल को मध्यस्थता के लिए तैयार होना ही पड़ा।
ऐसी भी खबरें हैं कि इस दिशा में कतर और जॉर्डन के अलावा संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने स्तर पर प्रयास किए। अमेरिका को भी सीजफायर का कुछ श्रेय दिया जा रहा है, जबकि सच तो यह है कि जो बाइडेन बेशक, सीजफायर का समर्थन करते रहे, लेकिन लड़ाई रोकने की अपील उन्होंने तब की, जब एक मध्यस्थ के रूप में मिस्त्र अपनी भूमिका को काफी व्यापक बना चुका था। पिछले कुछ दिनों में मिस ने वेस्ट बैंक में रामल्लाह और इस्राइल के तेल अवीव में सीजफायर के लिए कई बार अपने प्रतिनिधिमंडल को भेजा। कोशिशें जिसकी भी रंग लाई हों, अच्छी बात यह है कि मध्य-पूर्व की चिंगारी किसी बड़ी आग में बदलने से पहले बुझा ली गई है। लेकिन इस घटनाक्रम ने उसी पुराने सवाल को नये सिरे से सुलगा दिया है कि क्या 73 साल की इस समस्या का कभी मानवीय समाधान हो सकेगा या दोनों देश सामरिक स्वार्थ के लिए इसी तरह जान-माल की कुर्बानी देते रहेंगे?
उम्मीद पर भारी आशंका
दुर्भाग्य से इस सवाल के दूसरे हिस्से में छिपी आशंका बार-बार पहले हिस्से की उम्मीद पर भारी पड़ती आई है। ताजा मामले में भी दुनिया साफ तौर पर दो खेमों में बंटी दिखाई दी। अमेरिका समेत ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे कई यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन की सुरक्षा पर चिंता जताने का जुबानी जमाखर्च तो किया, वहीं खुले तौर पर इस्रइल के आत्मरक्षा के अधिकार का बचाव भी किया। घरेलू मोर्चे पर भ्रष्टाचार और अल्पमत की सरकार की चुनौतियों से जूझ रहे इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी इस समर्थन को हाथों-हाथ लिया और जंग के बीचों-बीच ट्विटर पर 25 देशों का शुक्रिया भी अदा कर दिया। दूसरे खेमे से तुर्की ने भी एक क्षेत्रीय संघर्ष को मुसलमानों की आन की लड़ाई की तरह पेश करने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई। उसकी अगुवाई में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) ने इस्रइल को भयानक नतीजों की चेतावनी तक दे डाली। शुक्र है कि इसकी नौबत नहीं आई, लेकिन जंग जारी रहने तक इस्राइल ने इस चेतावनी को कितनी गंभीरता से लिया, इसका अंदाजा गाजा में हुए नुकसान से लगाया जा सकता है।
दरअसल, यह नुकसान जितना गाजा का हुआ है, उतना ही ओआईसी की साख का भी हुआ है। 50 साल पुराने इस संगठन में 57 इस्लामिक देशों की हिस्सेदारी है। सदस्यता के लिहाज से संयुक्त राष्ट्र के अलावा दुनिया में इतना बड़ा दूसरा कोई संगठन नहीं है। 1971 में इसकी नींव पड़ने का मकसद ही फिलिस्तीन को इस्राइल से बचाना था। लेकिन इसमें शामिल देशों के अपने-अपने स्वार्थ ने इसकी पहचान को एक धार्मिंक संगठन तक कैद करके रख दिया है। सऊदी अरब एक तरफ अपनी छोटी-से-छोटी जरूरत के लिए अमेरिका के आसरे है, तो दूसरी तरफ वहां के शाही परिवार का डॉलर में भारी-भरकम निवेश है। तुर्की कहने को तो मुस्लिम देशों का सरपरस्त बनता है, लेकिन इस्राइल से उसके रिश्ते सात दशक पुराने हैं, जो आज कई बिलियन डॉलर के सालाना कारोबार में बदल चुके हैं। इस्लाम से संबंधित किसी मुद्दे पर उसका विरोध जुबानी जमाखर्च से ज्यादा नहीं होता। इसी तरह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में आए ‘अब्राहम अकॉर्ड’ के जरिए संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान और मोरक्को तक इस्राइल को मान्यता दे चुके हैं। पाकिस्तान जैसे चुनिंदा देशों को छोड़ दिया जाए, तो ओआईसी में शामिल लगभग हर बड़ा मुस्लिम देश किसी-न-किसी रूप में या तो इस्राइल से जुड़ा है, या उसका सहयोग करता है।
भारत की सधी प्रतिक्रिया
इस पूरे विवाद पर भारत की ओर से एक जिम्मेदार देश की तरह सधी प्रतिक्रिया देखने को मिली। भारत ने दोनों देशों को संयम से काम लेने और बातचीत से मामला सुलझाने की नसीहत दी। भारत और इस्राइल के हाल के दिनों के रिश्तों को देखते हुए भारत का यह स्टैंड भले ही हैरान करे, लेकिन इतिहास ऐसे ही रुख की पैरवी करता रहा है। पिछले सात दशक के पहले चार दशकों तक भारत की छवि फिलिस्तीन समर्थक देश की रही है, जबकि पिछले तीन दशकों में भारत दोनों देशों के बीच संतुलन साधता रहा है। हाल के वर्षो में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच गर्मजोशी भरे रिश्तों के बाद दोनों देशों के सामरिक संबंधों ने नया दौर देखा है। इसके बावजूद इस्राइल के पक्ष में खुलकर खड़ा होना भी भारत के लिए संभव नहीं है। इसकी दो वजह हैं। पहली तो यह कि फिलिस्तीन की जमीन पर इस्राइल के कब्जे का समर्थन करने के बाद पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन के मोर्चे पर भारत के दावे की नैतिक दमदारी कमजोर होती है। दूसरी, इस्राइल का समर्थन मतलब अरब देशों की नाराजगी जिनके साथ भारत का करीब 121 अरब डॉलर का कारोबार है, जो कुल सालाना विदेशी कारोबार का 19 फीसद बैठता है। इसकी तुलना में इस्राइल से भारत केवल पांच अरब डॉलर का कारोबार करता है। केवल इतना ही नहीं, अरब देशों से हमारा मेल वहां से आने वाले तेल और बड़े पैमाने पर मिलने वाली नौकरियों से भी जाकर जुड़ता है।
द्विपक्षीय संबंधों से आगे बढ़कर देखें, तो सवाल फिर वहीं जाकर जुड़ता है। दुनिया के इस सबसे लंबे संघर्ष का भविष्य क्या है? आज जब हर कोई इस विषय पर अपनी राय रख रहा है, तो यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि बापू इस बारे में क्या सोच रखते थे। पांच मई, 1947 को उन्होंने रॉयटर को एक इंटरव्यू दिया था और उस वक्त ही कह दिया था कि यह ऐसी समस्या बन चुका है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। उस इंटरव्यू में बापू ने इस समस्या को यहूदी धर्म, राजनीतिक खींचतान, धार्मिंक प्यास जैसे कई विषयों से जोड़ते हुए बहुत सारी काम की बातें कही थीं। इन्हीं में से एक काम की बात यहूदियों को अमेरिका और ब्रिटेन की चाल में नहीं फंसने की सलाह भी थी। दुर्भाग्य से यह सलाह नजरअंदाज हुई जो कालांतर में मध्य-पूर्व का नासूर बन गई। अब एक तरफ अमेरिका खड़ा है, जो इस्राइल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी से कोई अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई नहीं होने देगा, दूसरी तरफ ईरान, तुर्की जैसे देश हैं, जो हमास जैसे संगठनों को खाद-पानी देकर इस्लामी जिहाद को हवा देने का काम करते रहेंगे। इसलिए जो शांति पसंद हैं, वो बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि इस लड़ाई का अंत एक नई जंग की शुरु आत न हो।
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