एलएसी पर कौन-सी ’खिचड़ी‘ पका रहा चीन?

Last Updated 23 May 2021 12:18:36 AM IST

कोरोना काल में जब भारत घरेलू मोर्चे पर एक-के-बाद-एक नई चुनौतियों से जूझ रहा है, उसी वक्त हमारा पड़ोसी चीन एलएसी पर नये-नये निर्माण करने में जुटा है।


एलएसी पर कौन-सी ’खिचड़ी‘ पका रहा चीन?

हाल ही में उसने ब्रह्मपुत्र घाटी में रणनीतिक रूप से अहम हाई-वे का निर्माण किया है। यह हाई-वे अरु णाचल प्रदेश की सीमा के बेहद नजदीक है और चीन का कहना है कि इसका उपयोग सिविल और सेना दोनों नजरिए से किया जा सकेगा। आने वाले समय में चीन यहां एक विशाल बांध भी बनाने जा रहा है, लेकिन उससे पहले जुलाई तक चीन भारत की सीमा तक बुलेट ट्रेन भी शुरू कर देगा। यह ट्रेन तिब्बत से ल्हासा तक जाएगी यानी अरु णाचल प्रदेश की सीमा तक। एक तरह से देखा जाए तो चीन भारतीय सीमा के आस-पास बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के चौतरफा प्रयास में जुटा हुआ है। इस सबके बीच तिब्बत और शिनिजयांग प्रांत में उसकी सैन्य लामबंदी भी जारी है। चीन जो कुछ कर रहा है, वो अपनी सीमा में कर रहा है। इस लिहाज से इसमें आपत्तिजनक कुछ नहीं है, लेकिन वो जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, वो स्वाभाविक नहीं है। आखिर चीन ऐसा क्यों कर रहा है? वो चाहता क्या है? उसके इरादे क्या हैं?

इन सवालों के जवाब तलाशने में अधीरता ठीक नहीं होगी। वो भविष्य में छिपे हैं, जो वक्त आने पर खुद-ब-खुद सामने आ जाएंगे, लेकिन भूतकाल से ऐसा बहुत मसाला मिलता है जो चीन के दिमाग में पक रही खिचड़ी के बारे में संकेत देता है। इन्हीं संकेतों के कारण कोई भी इस संभावना को खारिज करने का जोखिम नहीं लेना चाहेगा कि यह सारी जमावट एलएसी पर नये सिरे से हमला बोलने के लिए की जा रही है। हालांकि इस मामले में चीन के लिए पिछले साल का तजुर्बा किसी सबक से कम नहीं होना चाहिए। पैंगोंग त्सो झील के साथ ही फिंगर-4 से उसका पीछे हटना चीनी वापसी का एक कभी न देखा-सुना गया दुर्लभ उदाहरण था। वो भी एक नहीं, दो-दो बार। पहले साल 2017 में डोकलाम में और फिर 2020 में लद्दाख में।

बेशक चीन ने अभी भी उस दौर में अवैध रूप से कब्जे में लिए गए समूचे विवादित क्षेत्र को खाली नहीं किया है, लेकिन उसकी इस हठधर्मिंता के बावजूद उसे मौसम और ऊंचाई के चुनौतीपूर्ण पैमानों पर भारतीय सेना की तुलनात्मक श्रेष्ठता का भी अच्छे से अहसास है। पिछले दोनों मौकों पर जब चीन को एलएसी पर मुंह की खानी पड़ी, तब हिमालय पर बर्फ जमने का वक्त था। शायद इसीलिए चीन ने अपनी चालबाजी के लिए इस बार बदले मौसम का चुनाव किया हो कि बदला मौसम शायद उसकी किस्मत भी बदल दे। इस बात की संभावना इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि जो चीन को जानते हैं, वो भी यह मानते हैं कि चीन कम-से-कम ऐसे समय में भारत के साथ तालमेल बिठाने में वक्त खराब नहीं करेगा, जब भारत कोरोना जैसी चुनौती से जूझ रहा हो। हालांकि इसके बावजूद पिछले साल के अनुभव से सतर्क भारत एलएसी पर अपने पहरे में कोई कोताही नहीं बरत रहा है, जो चीन की बौखलाहट को और बढ़ा रहा है। एलएसी पर चीनी आक्रमण की आशंकाओं को समझने के लिए पिछले एक साल में चीन का आचरण भी हमारी मदद कर सकता है। इस दौरान चीन के लड़ाकू विमानों ने कई बार ताइवान के हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किया है। सेनकाकू के द्वीप समूहों पर उसकी दावेदारी ने उसे न सिर्फ  जापान के आमने-सामने किया है, बल्कि पूर्वी चीन सागर में तनाव को भी बढ़ाया है। इसी तरह दक्षिण चीन सागर में उसने चीनी समुद्री मिलिशिया की आड़ में फिलीपींस के कब्जे वाले जलीय क्षेत्र को हथियाने की कोशिश की, हालांकि अमेरिकी दखल के कारण उसका यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका। लगभग इसी अंतराल में हमने चीन को हांगकांग में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू कर लोकतांत्रिक आवाजों को कुचलते हुए भी देखा। इस सबके बीच चीन की सबसे बुरी झड़प ऑस्ट्रेलिया से देखने को मिली, जिससे चीन वैसे भी क्वॉड में उसकी हिस्सेदारी के कारण खार खाता है।

कोरोना वायरस के स्रेत का पता लगाने के लिए जब ऑस्ट्रेलिया ने चीन में डब्ल्यूएचओ जांच की पैरवी की, तो चीन ऐसा भड़का कि उसने ऑस्ट्रेलियाई निर्यात को ही बैन कर दिया। ऑस्ट्रेलिया ही क्यों, विदेशी निवेश पर चीन के प्रतिबंध का असर भारत पर भी पड़ा है। वैसे भी चीन एशिया में भारत को ही अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानता है और ऐसे हर अवसर को अपने पक्ष में करने की ताक में रहता है जिसमें बेशक उसका फायदा न हो, लेकिन भारत का नुकसान जरूर हो। वहीं, कोविड के दौर में भी जारी उसके विस्तारवादी जुनून ने एक अलग तरह की परिस्थिति बना दी है। इससे भारत समेत ऑस्ट्रेलिया, जापान और यहां तक कि अमेरिका को भी अपनी रक्षा तैयारियां बढ़ाने के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है, जिसका उपयोग कोविड से लड़ने के लिए किया जा सकता है। केवल क्वॉड देश ही नहीं, चीन से निकले कोरोना के कारण ज्यादातर देशों की औद्योगिक-वाणिज्यिक सुविधाएं तबाह हो गई हैं, जबकि उत्पादन के वैश्विक पावरहाउस के तौर पर चीन के औद्योगिक उत्पादन का उच्च स्तर तक पहुंचना इस विकट काल में भी जारी रहा।

तो क्या अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर पुरानी स्थिति बहाल करने के बाद चीन अब अपनी सीमाओं पर भी वो सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है, जिसे उसने हाल के दिनों में गंवाया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए चीनी सैनिक अभी भी गोगरा, हॉट स्प्रिंग और डेमचोक जैसे रणनीतिक ठिकानों में जमे हुए हैं। तिब्बती पठार पर उनका नियमित सैन्य अभ्यास अब भी जारी है, जबकि देपलांग के मैदानों में भारतीय गश्त को लगातार रोक-टोक का सामना करना पड़ रहा है। इन सबके बीच बुनियादी ढांचे के निर्माण की खबरों को सामान्य तौर पर नहीं लिया जा सकता। देश का सैन्य तंत्र भी इन आशंकाओं को खारिज नहीं कर रहा है। वरना एलएसी पर 50 से 60 हजार सैनिकों की स्थाई तैनाती की योजना के पीछे की मंशा क्या है? चीन की ओर से किसी भी तरह के सैन्य दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब देने के अलावा इसका क्या मकसद हो सकता है? सवाल यह भी उठता है कि क्या वाकई एलएसी पर ऐसे हालात बनते दिख रहे हैं या सब कुछ केवल एहतियात के लिए किया जा रहा है?

उपेन्द्र राय


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