मुद्दा : कैसे हो रोजगारपरक शिक्षा
आए दिन अखबारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं।
मुद्दा : कैसे हो रोजगारपरक शिक्षा |
सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाड़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कॉलेज की शिक्षा के विविख्यात लेखक बने।
पिछले 25 वर्षो में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए, जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रुपये इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई।
खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रुपए के वारे न्यारे कर लिए। दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी र्सटििफकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गई, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यावहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यावहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं, जबकि अरबों रुपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।
कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षो से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया, जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पम्प विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी-झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत।
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