सामयिक : कागजी तालाबों का सच
भारत की आजादी के 75 साल होने पर केंद्र सरकार की ‘अमृत सरोवर योजना’ का दिसम्बर, 23 में समापन हो चुका है। दावों पर भरोसा करें तो योजना के अंतर्गत 50 हजार तालाब तैयार करने की तुलना में कहीं अधिक 68 हजार से ज्यादा तालाब बना दिए गए हैं।
सामयिक : कागजी तालाबों का सच |
दावा तो यह भी है कि इससे 68 हजार करोड़ क्यूबिक मीटर पानी सहेजने की क्षमता पा ली गई। इन दावों और आंकड़ों का इस सावन-भादों में एक प्रकार से इम्तिहान था। आखिर, देश के कुल 735 जिलों में 10,419.38 करोड़ खर्च कर देश को पानीदार बनाने के लिए एक एकड़ क्षेत्रफल और 10,000 घन मीटर क्षमता वाले 68849 ऐसे तालाब खोद दिए गए। जब देश के बड़े हिस्से में पर्याप्त बरसात हो चुकी और बादल विदा भी हो गए तो इस महत्त्वाकांक्षी योजना की कागजी इबारत के मुताबिक तो देश के पास सारे साल का जल एकत्र हो जाना चाहिए। मिशन अमृत सरोवर 24 अप्रैल, 22 में लॉन्च किया गया और 15 अगस्त, 23 में पूरा होना था लेकिन इसका समापन दिसम्बर, 23 में किया गया। अब मिशन की वेबसाइट पर तालाबों की संख्या तो आती है, लेकिन उन पर हुए खर्च का ब्यौरा गायब है।
प्यास और पलायन के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के ललितपुर जिले में करोड़ों खर्च करके दो साल बाद भी 182 में से 52 अमृत सरोवरों का कायाकल्प नहीं हो सका जबकि सरकारी दावा है कि छह ब्लॉकों के करीब 130 तालाबों का काम पूरा हो चुका है। छह ब्लॉकों के प्रत्येक गांव से एक-एक सरोवर का चयन करना था। वैसे भी यहां हर गांव में पुराने पोखर, तालाब तो थे ही। उन्हें कुछ खोदा गया, कुछ की दीवार बनाई गई और अमृत सरोवर नाम दे दिया गया।
इन सरोवरों पर पौधरोपण तो किया गया था, लेकिन देखरेख के अभाव में पौधे सूख चुके हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड की चार पंचायतों में अमृत सरोवर योजना के तहत विकसित किए गए पांच में से चार पोखर बदहाली की पीड़ा झेल रहे हैं। मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की तहसील सिरोंज की ग्राम पंचायत सरेखो में करीब 38 लाख की लागत से बनाए गए दो अमृत सरोवर तालाब पर तो बड़ी वाहवाही लूटी गई थी। जम कर मीडिया में प्रचार हुआ था। अब ये तालाब एक बारिश की जल-निधि भी नहीं झेल पाए। धराशायी हो गए। इससे कई गांवों में पानी भर गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग में तो पुराने ठगडा बांध पर कागजों में ही अमृत सरोवर बना दिया गया। जब वहां भारत माला परियोजना के लिए मुरम खुदाई के अनापत्ति प्रमाणपत्र की बात आई तो पता चला कि पुराने बांध में तालाब खोदने के कागज भर दिए गए।
ये तो कुछ बानगी हैं कि अमृत अरोवर के नाम पर पुराने तालाबों में कुछ खुदाई और लिपाई-पुताई की गई और पहली बरसात में ही इनमें से अधिकांश पहले से बदतर हालात में हैं। हालांकि सच्चाई यह है कि सरोवर तैयार करना अपने आप में जटिल प्रक्रिया है, और उसके स्थान का चयन हमारा पारंपरिक जल-आगम, स्थान की मिट्टी के मिजाज, स्थानीय जलवायु आदि के अनुरूप करता था। केंद्र सरकार के निर्देश के जल्द क्रियान्वयन के लिए जिला प्रशासन ने पुराने तालाबों को ही चमकाया।
जरा सोचें देश में 68 हजार से अधिक तालाब जिनका माप प्रत्येक तालाब औसतन एक हेक्टेयर और दस फुट गहराई का भी हुआ तो 27 अरब क्यूबिक लीटर क्षमता का विशाल भंडार होना चाहिए। एक हेक्टेयर यानी 10 हजार मीटर, दस फुट यानी 31048 मीटर, हर तालाब की क्षमता 30 हजार वर्ग मीटर। एक हजार लीटर जल यानी एक क्यूबिक मीटर-जाहिर है कि हर तालाब में 30 हजार क्यूबिक मीटर जल और सभी 68 हजार सरोवर जमीन पर हो तो हम पानी पर स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भर बन सकते थे। इसकेविपरीत राजस्थान-मध्य प्रदेश में बहुत से गांवों में हर घर नल योजना के स्रेत ही रीते हैं।
उल्लेखनीय है कि देश में औसतन 1170 मिमी. पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है। देश में पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं। औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1।12 हेक्टेयर जमीन पर तालाब बने हों तो देश की कोई एक अरब 30 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, और अन्य प्रयोग के लिए 3175 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हेक्टेयर जमीन पर महज 100 मिमी. बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनाएं उपलब्ध हैं। जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की।
आजादी के बाद 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत (कोई 36 लाख हेक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाब से सिंचाई का रकबा घट कर 17 लाख हेक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसद रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहेज कर रखा। हिन्दी पट्टी में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उन पर निर्माण कर दिया गया या तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान में बदल दिया गया।
यह बानगी है कि किस तरह हमारे किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया। अमृत सरोवर योजना देखने में लुभावनी थी लेकिन क्रियान्वयन के नाम पर उसे आंकड़े भरने और बजट खर्चने का जरिया बना दिया गया। योजना केंद्र की और क्रियान्वयन राज्य सरकारों का, ऊपर से हर दिन आंकड़ा भरने की हड़बड़ाहट, इसके चलते योजना कागजों में तालाब खोदने की अधिक हो गई। इस योजना में खुदाई के लिए मनरेगा सहित सभी योजनाओं से धन आवंटन की भी सुविधा थी अर्थात काम मनुष्य द्वारा किया जाना था, लेकिन जेसीबी से खुदाई की खबरें भी आती रहीं। श्रेय लूटने, लाल बस्ते का पेट भरने की होड़ में शानदार योजना चुल्लू भर पानी में ही डूब गई।
काश! इसे हर जिले में तीन हेक्टेयर या उससे बड़े तालाबों के चिन्हीकरण और उनको पारंपरिक स्वरूप में संवारने तक सीमित रखा गया होता तो योजना अधिक धरातल पर दिखती। हर जिले में जो सैकड़ों साल पुरानी जल संरचनाएं हैं, वे जल ग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण और निस्तार की गंदगी डालने से ही बेजान हुई हैं। योजना का अमृत पहले इन पर गिरता तो परिणाम अलग होते। योजना में स्थानीय समाज को शामिल किया जाता तो कई हजार करोड़ रुपये के व्यय से जल-जगत की संपन्नता कार्तिक में ही दिख जाती।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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