बुलडोजर कार्रवाई : कई सवाल हैं अनुत्तरित
सुप्रीम कोर्ट द्वारा बुलडोजर कार्रवाई पर दिए गए फैसले की गहराई से समीक्षा करने की आवश्यकता है। न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति केवी विनाथन की पीठ ने बुलडोजर कार्रवाई के संदर्भ में कुछ कानूनी, संवैधानिक तो कुछ मानवीय सिद्धांत और आधार देकर मार्गनिर्देश निर्धारित किया है।
बुलडोजर कार्रवाई : कई सवाल हैं अनुत्तरित |
इसमें क्या करना और क्या न करना दोनों बातें समाहित हैं। हालांकि गहराई से देखें तो इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो पहले से बने-बनाए नियमों से बिल्कुल अलग हों। दूसरे, भले भाजपा सरकारों के विरोधी इससे उत्साहित हों लेकिन फैसले में किसी सरकार का नाम लेकर निंदा या तीखी टिप्पणी नहीं की गई है।
यह बात सही है कि इसमें उत्तर प्रदेश की तीन घटनाओं का विशेष जिक्र है। इस कारण आप अर्थ निकाल सकते हैं कि यह योगी आदित्यनाथ सरकार के विरुद्ध है। यहां भी न्यायालय ने किसी मामले की जांच करने या सरकार पर वित्तीय जुर्माना आदि का आदेश नहीं दिया है। उप्र बुलडोजर को अंतरराष्ट्रीय विषय बनाने वालों की इसमें भूमिका रही और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी टीम से 128 मामलों की जांच कर उसकी एक रिपोर्ट न्यायालय में सौंपा था। न्यायालय ने अलग से उस रिपोर्ट की सत्यता जानने की कोशिश नहीं की। इसका अर्थ हुआ कि उच्चतम न्यायालय किसी राज्य या कुछ घटना विशेष पर फोकस करने की बजाय भविष्य के लिए एक व्यापक मार्गनिर्देश देना चाहता था और उसने वही किया है। उच्चतम न्यायालय हमारे संविधान का अभिभावक तथा कानूनी संवैधानिक मामले पर न्याय का अंतिम शब्द है।
इसलिए उसके हर फैसले का सम्मान होना ही चाहिए। अगर न्यायालय कह रहा है कि संसदीय लोकतंत्र में शासन के तीनों अंगों की शक्ति विभाजित है, जो काम न्यायपालिका का है वह न्यायपालिका करे और कार्यपालिका अपनी भूमिका निभाए तो इसमें कुछ भी गलत नहीं। प्रशासन और पुलिस नियम कानून का पालन करने, करवाने तथा न्यायपालिका द्वारा दिए गए आदेश का पालन करने के लिए है। इसके परे वह जो कुछ भी करेगा अपराध होगा। न्यायालय ने कहा कि हमारे संवैधानिक आदर्श किसी भी शक्ति के दुरु पयोग की अनुमति नहीं देते। यह कानून के शासन व न्यायालय द्वारा सहन नहीं किया जा सकता। जब किसी विशेष संरचना को अचानक से ध्वस्त करने के लिए चुना जाता है, और उसी प्रकार की बाकी संपत्तियों को नहीं छुआ जाता, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि असली उद्देश्य कानूनी कार्रवाई नहीं, बल्कि बिना सुनवाई के दंडित करना था। ये पंक्तियां अवश्य भाजपा सरकारों के व्यवहार को कठघरे में खड़ा करते हैं। यहां भी किसी घटना का आधार नहीं है।
आइए, फैसले के कुछ मुख्य बिंदुओं को देखें। एक, किसी आरोपी या गुनहगार के घर को सिर्फ इस आधार पर नहीं गिराया जा सकता कि उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि है। ऐसी कार्रवाई गैरकानूनी और असंवैधानिक है। दो, कार्यपालिका न्यायाधीश बनकर यह फैसला नहीं कर सकती कि वह दोषी है या नहीं। इस तरह की कार्रवाई लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा है।’ तीन, कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि लोगों को पता हो कि उनकी संपत्ति को बिना किसी उचित कारण के नहीं छीना जा सकता। चार, बिना पूर्व कारण बताओ नोटिस के कोई ध्वस्तीकरण नहीं किया जाना चाहिए, जो या तो स्थानीय नगरपालिका कानूनों में दिए गए समय के अनुसार या सेवा की तारीख से 15 दिनों के भीतर (जो भी बाद में हो) प्रस्तुत किया जाना चाहिए। नोटिस के 15 दिनों तक कोई कार्रवाई नहीं होगी।
नोटिस पंजीकृत डाक के माध्यम से मालिक को भेजा जाएगा और संरचना के बाहरी हिस्से पर भी चिपकाया जाएगा। नोटिस में अवैध निर्माण की प्रकृति, विशेष उल्लंघन का विवरण और ध्वस्तीकरण के आधार शामिल होने चाहिए। अथॉरिटी को आरोपी को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर देना होगा। ऐसी बैठक के विवरण को रिकॉर्ड किया जाएगा अंतिम आदेश में नोटिसधारी के पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए, ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया का वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी और ध्वस्तीकरण रिपोर्ट डिजिटल पोर्टल पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। पांच, किसी भी निर्देश के उल्लंघन से अवमानना कार्यवाही शुरू की जाएगी। अधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिए कि यदि ध्वस्तीकरण में निर्देशों के उल्लंघन में पाया जाता है, तो ध्वस्त की गई संपत्ति की पुनस्र्थापना के लिए अधिकारियों को व्यक्तिगत खर्च पर जवाबदेह ठहराया जाएगा। साथ ही हर्जाने का भुगतान भी करना होगा।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इसका स्वागत किया है और राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी ने भी। कानून का शासन तभी माना जाएगा जब सरकारें, पुलिस प्रशासन सब कानून की परिधि में रहकर अपनी भूमिका निभाएं, लेकिन नियम-कानून के परे जाकर भूमिका निभाने वाले के लिए पहले भी कड़े कानून हैं। आम आदमी के संदर्भ में तो न्यायालय की बातें मानवीयता की परिधि में एक सीमा तक सही है। निस्संदेह, आम नागरिक के लिए अपने घर का निर्माण कई वर्षो की मेहनत, सपने और आकांक्षाओं का परिणाम होता है। न्यायालय का यह मत बिल्कुल सही है कि घर, सुरक्षा और भविष्य की एक सामूहिक आशा का प्रतीक है और अगर इसे छीन लिया जाता है, तो अधिकारियों को यह साबित करना होगा कि यह कदम उठाने का उनके पास एकमात्र विकल्प था।
प्रश्न है कि आरोपी बड़ा बाहुबली और माफिया हो, जिसने पहले से इस तरह जमीन हड़प कर कब्जे कर अवैध निर्माण किया हो और अपनी ताकत की बदौलत प्रशासन को नकारता हो तो उसके साथ क्या किया जाए? क्या किसी साधारण पुलिस वाले या प्रशासनिक अधिकारी की हैसियत थी कि वह एक समय अतीक अहमद की अवैध संपत्ति पर नोटिस चिपकाए? क्या मुख्तार अंसारी के विरु द्ध यह संभव था? ऐसे ही हर राज्य, हर जिले में अपराधी, माफिया, बाहुबली हैं जिन्होंने निजी संपत्ति तो छोड़िए सरकारी जगहों पर कब्जे कर अवैध निर्माण किए हैं। हमारे देश में एक्टिविस्टों का एक बड़ा समूह स्वयं इतना शक्तिशाली है कि ऐसे किसी विषय को देश और उसके बाहर बड़ा मुद्दा बना देता है। फैसले पर पुनर्विचार याचिका आए तो शायद आगे न्यायालय अपने मत का विस्तार करें।
(लेख में विचार निजी हैं)
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