तालिबानी मुस्लिम : यूरोप क्यों खिलाफ है

Last Updated 23 Sep 2024 01:37:22 PM IST

पिछले कुछ वर्षो से यूरोप की स्थानीय आबादी और बाहर से वहां आकर बसे मुसलमानों के बीच नस्लीय संघर्ष तेज हो गए हैं। ये संघर्ष अब खूनी और विध्वंसकारी भी होने लगे हैं।


तालिबानी मुस्लिम, यूरोप क्यों खिलाफ है

 कई देश मुसलमानों पर सख्त पाबंदियां लगा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने की मांग उठ रही है। आतंकवादियों की शरणस्थली बनी उनकी मस्जिदें बुलडोजर से ढहाई जा रही हैं। दाढ़ी रखने और बुर्का पहनने पर पाबंदियां लगाई जा रही हैं।  

यह इसलिए हो रहा है क्योंकि मुसलमान जहां जाकर बसते हैं, वहां शरीयत का अपना कानून चलाना चाहते हैं। वे स्थानीय संस्कृति व धर्म का विरोध करते हैं। अपनी अलग पहचान बना कर रहते हैं। स्थानीय संस्कृति में घुलते-मिलते नहीं हैं। हालांकि सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। पर जो अतिवादी होते हैं, उनका प्रभाव अधिकतर मुसलमानों पर पड़ता है जिससे हर मुसलमान के प्रति नफरत पैदा होने लगती है। यह बात दूसरी है कि इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल जैसे जिन देशों में मुसलमानों के खिलाफ माहौल बना है, ये वो देश हैं जिन्होंने पिछली सदी तक अधिकतर दुनिया को ग़ुलाम बनाकर रखा और उन पर अपनी संस्कृति और धर्म थोपा था।

पर आज अपने किए वो घोर पाप उन्हें याद नहीं रहे। पर इसका मतलब यह नहीं कि अब मुसलमान भी वही करें जो उनके पूर्वजों के साथ अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, डच ने किया था। क्योंकि आज के संदर्भ में मुसलमानों का आचरण अनेक देशों में वाकई चिंता का कारण बन चुका है। उनकी आक्रामकता और पुरातन धर्माध सोच आधुनिक जीवन के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए समस्या और भी जटिल होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि उनके कट्टरपंथी आचरण का विरोध उनके विरुद्ध खड़े देशों में ही हो रहा हो। मुस्लिम देशों में भी उनके कठमुल्लों की तानाशाही से अमनपसंद अवाम परेशान है।

अफगानिस्तान की महिलाओं को लें। उन पर कठोर पाबंदियों ने इन महिलाओं को मानसिक रूप से कुंठित कर दिया है। वे लगातार मनोरोगों की शिकार हो रही हैं। जब तालिबान ने पिछले महीने सार्वजनिक रूप से महिलाओं की आवाज पर अनिवार्य रूप से प्रतिबंध लगाने वाला कानून पेश किया तो दुनिया हैरान रह गई, लेकिन जो लोग अफगानिस्तान के शासन के अधीन रहते हैं, उन्हें इस घोषणा से कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी से बात करते हुए वहां रहने वाली एक महिला बताया, ‘हर दिन हम एक नये कानून की उम्मीद करते हैं। दुर्भाग्यवश, हर दिन हम महिलाओं के लिए एक नई पाबंदी की उम्मीद करते हैं। हर दिन हम उम्मीद खो रहे हैं।’ इस महिला के लिए इस तरह की कार्रवाई अपरिहार्य थी। लेकिन उसके और उसके जैसी अनेक महिलाओं के लिए ऐसे फैसलों के लिए मानसिक रूप से तैयार होने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हानिकारक प्रभाव कम नहीं हुआ।

तालिबान द्वारा यह नया प्रतिबंध महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गाने, कविता पढ़ने या जोर से पढ़ने से भी रोकता है क्योंकि उनकी आवाज को शरीर का ‘अंतरंग’ हिस्सा माना जाता है। अगस्त के अंत में लागू किया गया यह तालिबानी आदेश स्वतंत्रता पर कई प्रहारों में से एक है। महिलाओं को अब ‘पल्रोभन’ से बचने के लिए अपने शरीर को हर समय ऐसे कपड़ों से ढकना चाहिए जो पतले, छोटे या तंग न हों, जिसमें उनके चेहरे को ढकना भी शामिल है।

जीवित प्राणियों की तस्वीरें प्रकाशित करना और कंप्यूटर या फोन पर उनकी तस्वीरें या वीडियो देखना भी प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिससे अफगानिस्तान के मीडिया आउटलेट्स का भाग्य खतरे में पड़ गया है। महिलाओं की आवाज रिकॉर्ड करना और फिर उन्हें निजी घरों के बाहर प्रसारित करना भी प्रतिबंधित है। इसका मतलब है कि जिन महिलाओं ने अपने इंटरव्यू रिकॉर्ड किए या वॉयस नोट्स के माध्यम से किसी न्यूज एजेंसी के साथ बात करना चुना तो उन्होंने काफी बड़ा जोखिम उठा कर किया। लेकिन कड़ी सजा की संभावना के बावजूद उन्होंने कहा कि वे चुप रहने को तैयार नहीं हैं। इस एजेंसी को दिए गए इंटरव्यू के माध्यम से वे चाहती हैं कि दुनिया अफगान महिला के रूप में जीवन की क्रूर, अंधकारमय सच्चाई को जाने।

इस इंटरव्यू में अधिकतर महिलाओं ने अमानवीय सजा के डर से अपना नाम न देने की इच्छा जाहिर की परंतु काबुल की सोदाबा नूरई अनूठी महिला थीं-उन्होंने सजा से बिना डरे अपना नाम लेने की इच्छा की। न्यूज एजेंसी को भेजे वॉइस मैसेज में उन्होंने कहा, ‘महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से बोलने पर प्रतिबंध के बावजूद मैंने आपसे बात करने का फैसला किया क्योंकि मेरा मानना है कि हमारी कहानियों को साझा करना और हमारे संघर्ष के बारे में जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। खुद पहचान जाहिर करना बड़ा जोखिम है, लेकिन मैं इसे लेने को तैयार हूं क्योंकि चुप्पी केवल हमारी पीड़ा को जारी रखने की अनुमति ही देगी। यह नया कानून बेहद चिंताजनक है और इसने महिलाओं के लिए भय और उत्पीड़न का माहौल पैदा कर दिया है। यह हमारी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है, और शिक्षा, कार्य और बुनियादी स्वायत्तता के हमारे अधिकारों को कमजोर करता है।’

उल्लेखनीय है कि सोदाबा नूरई को नौकरी से अगस्त, 2021 में हाथ धोना पड़ा क्योंकि तब वहां तालिबान का राज पुन: स्थापित हुआ और शरीयत कानून के मुताबिक महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए। अब उसे सरकार से प्रति माह 107 डॉलर के बराबर राशि मिलती है, जिसे वह महिलाओं की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त मानती हैं। अफगान महिलाएं चाहती हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तत्काल एक मजबूत, समन्वित और प्रभावी रणनीति विकसित और लागू करनी चाहिए जो तालिबान पर ये बदलाव लाने के लिए दबाव डाले। इस तालिबानी आदेश से दिखाई देता है कि तालिबान द्वारा किसी एक अधिकार का उल्लंघन अन्य अधिकारों के प्रयोग पर किस तरह से घातक प्रभाव डाल सकता है। कुल मिला कर तालिबान की नीतियां दमन की ऐसी प्रणाली बनाती हैं, जो अफगान महिलाओं और लड़कियों के साथ उनके जीवन के लगभग हर पहलू में भेदभाव करती है। इन दमनकारी आदेशों के खिलाफ विश्व को एक होने की आवश्यकता है।
(लेखक के निजी विचार हैं)

विनीत नारायण


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