पर्व : एक बार फिर वही रोना

Last Updated 23 Sep 2024 01:33:54 PM IST

श्राद्ध पक्ष चल रहा है। इन दिनों गुजरे लोगों को याद करना और उन्हें मनपसंद भोजन बना कर खिलाने की परंपरा निभाई जाती है। मान्यताओं के मुताबिक स्वर्गीय तक भोजन कौओं द्वारा पहुंचाया जाता है। श्राद्वों में कौए परलोकी लोगों के वाहक बनते हैं।


पर्व : एक बार फिर वही रोना

पर, कौए इन्हीं दिनों में दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखाई पड़ते। श्राद्ध का भोजन लेकर लोग उनके आगमन का लंबा इंतजार करते रहते हैं। लेकिन वो नहीं आते। हों तो ही आए न? हैं ही नहीं? जबकि श्राद्ध में भोजन उन्हीं को ध्यान में रख कर तैयार किया जाता है।

जाहिर है जब कौए ही नहीं होंगे, तो श्राद्ध की मान्यताएं भला कैसी पूरी होंगी? हमेशा से होता आया है कि श्राद्ध में पितरों का भोजन जब तक कौए न खाएं, श्राद्ध की मान्यताएं पूरी नहीं होतीं। कौए आएंगे, खाना चुगेंगे और पितरों तक पहुंचाएंगे, लेकिन कौवे नहीं आते? ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी कहीं-कहीं दिख जाते हैं, लेकिन शहरों से कौवे पूरी तरह से गायब हो चुके हैं।  

प्राचीन परंपराओं के अनुसार श्राद्धों से कौवों का सीधा संबंध होता है। पौराणिक बातों में यह बात सिद्ध है कि श्राद्धों में जो व्यंजन बनते हैं, उन्हें पितरों तक कौए ही पहुंचाते हैं। श्राद्ध में लोग अपने पितरों को भोजन कराने के लिए घरों के छतों, खेतों, चौक-चौहराओं पर रखते हैं, और कौओं के आने का इंतजार करते हैं। श्राद्ध का खाना कौआ खा ले, तो समझा जाता है कि श्राद्ध की आस्था पूरी हुई।

कौओं की संख्या लगातार कम होने से उनकी जबह अब गली-मौहल्ले के आवारा कुत्ते, भेड़-बकरी आदि जानवर श्राद्वों के भोजन पर झपट्टा मारते देखे जाते हैं। कौए नहीं आते तो लोग मजबूरन इन्हीं को कौवो का प्रतिरूप मान कर मन को समझा लेते हैं क्योंकि इसके सिवा कोई विकल्प भी नहीं। दूषित पर्यावरण के चलते विलुप्त होती प्रजातियों में कौए भी शामिल हैं। एक वक्त था, जब घरों के आंगन और मुंडेरों पर कौओं की बहुतायत होती थी। उनकी मधुरई कांव-कांव की आवाजें सुनने को मिलती थीं।

दरअसल, कौए हमेशा से अन्य पक्षियों के मुकाबले तुच्छ माने गए हैं। कौए का शरीर औषधि के तौर पर भी प्रयुक्त किया जाता है। कौए छोटे-छोटे जीव एवं अनेक प्रकार की गंदगी खाकर भी अपना पेट भर लेते हैं। श्राद्ध पक्ष में इस दुर्लभ पक्षी की भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराने की बात विष्णु पुराण में भी कही गई है। श्राद्धों में कौओं को खाना और पीपल को पानी पिला कर पितरों को तृप्त किया जाता है।

कौओं के संबंध में एक और दिलचस्त बात प्रचलित है। किसी के आगमन की सूचना भी इनकी चहलकदमी से जोड़ी जाती रही है। वक्त वह भी था जब परिवार की महिलाएं शगुन मान कर कौवा को मामा कह कर घर में बुलाया करती थीं, तो कभी उसकी बदलती हुई दिशा में कांव-कांव करने को अपशकुन मानते हुए उड़ जा कहके बला टालती थीं। घर की बहुएं भी कौए के जरिए अपने मायके से किसी के आने का संदेश पाती थीं। कौओं की तरह अब कई और बेजुबान पक्षियों की आबादी घट गई है। इसके पीछे मानवीय हिमाकत प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। पक्षियों के रहने-खाने की सभी जगहों को नष्ट कर दिया गया है। उनके ठिकाने भी कच्चे घर हुआ करते थे, वे भी अब रौंद दिए गए हैं।

पेड़ों पर भी इनका निवास होता था, वह भी लगातार काटे जा रहे हैं। समय ज्यादा दूर नहीं, जब श्राद्व के अलावा किसी भी मौसम में कोई पक्षी नहीं दिखाई दिया करेगा। कॉर्नेल यूनिर्वसटिी के संरक्षक वैज्ञानिक केनेथ रोजेनबर्ग ने कहा भी है कि मोबाइल टाबरों के रेडिएशन ने पक्षियों को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है विशेषकर कौए, तोते, गिद्ध, गोरिया जैसे अद्भुत पक्षियों को। समूची दुनिया में पक्षियों की आबादी लगभग एक तिहाई खत्म हो चुकी है। एक जमाना था, जब कहते थे कि किसी के माथे पर अचानक कोई कौआ आकर बैठ जाए तो अशुभ होता था। उस अशुभता को मिटाने के लिए अपने रिश्तेदारों में उस व्यक्ति के संबंध में मरने की झूठी खबर फैलाई जाती थी। फिर कुछ समय बाद उसी खबर को निराधार किया जाता था। कहा जाता था इस तरह से संभावित विपत्ति टल जाती है।

पहले देखने में आता था कि मरे हुए जानवरों को गिद्व और कौए खा जाते थे, लेकिन अब उनके न होने से मृत जानवरों के शरीर सड़ते रहते हैं। दुर्गध दूर-दूर तक फैली रहती है जिससे लोग संक्रमित भी हो जाते हैं। गंदगी को समेटने में गिद्धों, चीलों और कौओं का बड़ा योगदान होता था। कौए अब कितने बचे हैं, और कितने गायब हो गए हैं, इसका सटीक कारण किसी के पास नहीं है। पर्यावरणविद् के अलावा देश के अनगिनत पशु-पक्षी प्रेमी सालों से चिंता जता रहे हैं कि कौआ चील, गिद्ध, गौरैया, सारस के अलावा तमाम दुर्लभ किस्म के भारतीय पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन कोई भी इस ओर ध्यान नहीं देता। उसी का नतीजा है कि श्राद्धों में कौओं का इंतजार करना पड़ता है।

डॉ. रमेश ठाकुर


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