जारवा आदिवासी : इनके मताधिकार के मायने

Last Updated 18 Jan 2025 01:30:17 PM IST

आदिम जनजाति जारवा अंडमान-द्वीप समूह की एक प्रमुख जनजाति है। ये आज भी अर्ध-खानाबदोश आदिम जीवन-शैली जी रहे हैं। प्राकृतिक रूप में उपलब्ध वन-संसाधन ही इनके आजीविका के प्रमुख साधन हैं। स्थानीय प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े रहकर ये अपनी जीवन-शैली में मस्त हैं।


 जारवा लोग बाहरी संपर्क से अलग-थलग हैं। इसी कारण उनकी अनूठी सांस्कृतिक परंपरा और भाशा-बोली संरक्षित हैं। वे दक्षिणी और मध्य अंडमान द्वीप समूह के पश्चिमी समुद्री तटों पर रहते हैं। स्थानीय प्रशासन के तमाम प्रयासों के बाद अब इस जनजाति समूह को संवैधानिक लोकतांत्रिक धारा से जोड़े जाने की ऐतिहासिक पहल हुई है।

इस समुदाय के 19 सदस्यों के नाम मतदाता सूची में दर्ज करके, उन्हें मतदाता पहचान-पत्र दिए गए हैं। अंडमान द्वीप समूह के मुख्य सचिव चंद्रभूषण कुमार ने दक्षिण अंडमान जिले के जिरकाटांग स्थित बस्ती में पहुंचकर पहली बार मतदाता बने लोगों को पहचान-पत्र सौंपे। जारवा समुदाय की इन पहचान-पत्रों से भारतीय होने की नागरिकता सुनिश्चित हुई है। साथ ही यह उनकी निजता की रक्षा के लिए एक व्यापक उपाय भी है। इस कार्यवाही से उम्मीद जगी है कि भविष्य में इस द्वीप समूह के सभी लोग भारतीय नागरिक के रूप में मतदाता बना दिए जाएंगे। वरना एक समय इस द्वीप समूह में प्रवेश पाना मौत को आमंतण्रदेना था।

इस कार्यवाही को पूरी करने में अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, जिसने सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त और सम्मानजनक तरीके से उनकी भाषा में चुनावी प्रक्रिया के बारे में जारवा समुदाय से संवाद करके उनके बीच जागरूकता पैदा करके इस प्रक्रिया को सुगम बनाया। जारवा समुदाय अंडमान द्वीप समूह के दक्षिण और मध्य तथा पष्चिमी समुद्री तटों पर रहते हैं। यह पूरा क्षेत्र जैव विविधता से समृद्ध है। इसे ही इस समुदाय ने अपने पारंपरिक जीवनशैली के अनुरूप ढाल लिया है। जारवा समुदाय के साथ पहला उल्लेखनीय दोस्ताना संबंध अप्रैल 1996 में हुआ था, जो बाहरी दुनिया के साथ उनके संपर्क में एक अहम मोड़ साबित हुआ।

इस संबंध के लिए शायद प्रकृति ने ही घटनाक्रम रचा था। दरअसल, जारवा जनजाति के 21 वर्षीय एनमेई को अपने बाएं टखने में गहरी चोट आई थी। प्रशासन ने करु णा का परिचय देते हुए एनमेई का उदारतापूर्वक उपचार कराया और ठीक होने के बाद उन्हें सुरक्षित बस्ती में वापस भेज दिया। यहां से प्रशासन और समुदाय के बीच विश्वास का जो संवाद बना, उसने आज इस समुदाय के लोगों के भारतीय नागरिक होने के पहचान के रूप में मतदाता पहचान-पत्र सौंपने का मार्ग प्रशस्त किया। अन्यथा जारवा समूह से जो भी कोई संपर्क करने की सोचता था, उसे हिंसक टकराव का सामना करना पड़ता रहा है।   दरअसल, जो लोग स्वयं को सभ्य और आधुनिक समाज का हिस्सा मानते रहे हैं, वही लोग प्राकृतिक अवस्था में रह इन लोगों को इंसान मानने की बजाय लगभग जंगली जानवर ही मानते रहे हैं। आधुनिक कहे जाने वाले समाज की यह एक ऐसी विडंबना है, जो सभ्यता के दायरे में कतई नहीं आती।

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में रह रहे लुप्तप्राय जारवा प्रजाति की महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन का लालच देकर सैलानियों के सामने नचाने के कुछ साल पहले वीडियो-दृश्य ब्रिटिश अखबारों में सिलसिलेवार छपे थे। इन्हें शासन-प्रशासन के स्तर पर झुठलाने कवायद की गई थी, परंतु यह ठोस हकीकत थी। अभयारण्य में दुर्लभ वन्य जीवों को देखने की मंशा की तरह, दुर्लभ मानव प्रजातियों को भी देखने की इच्छा नव-धनाढ्यों और रसूखदारों में पनप रही है, और जिस सरकारी तंत्र को आदिवासियों की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया था, वही इन्हें लालच देकर नचवाने का काम कर रहा था। इसी कुत्सित मानसिकता के चलते कुछ लोग जारवाओं को इंसानों की बजाए, मनोरंजक खिलौने भी मानते रहे हैं।

आधुनिक विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वन कानून में लगातार हो रहे बदलावों के चलते अंडमान में ही नहीं देश भर की जनजातियों की संख्या लगातार घट रही हैं। आहार और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी होती जा रही है। इन्हीं वजहों के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अलग-अलग दुर्गम टापुओं पर जंगलों में समूह बनाकर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है। यही वजह है कि इनकी संख्या घटकर महज 381 रह गई है।

एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी केवल 97 के करीब है। इन लोगों में प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी कम होती है कि ये एक बार बीमार हुए तो इनका बचना नामुमकिन हो जाता है। हालांकि अब इनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए टीकाकरण करने और पौष्टिक खुराक देने के उपाय निरंतर किए जा रहे हैं। मतदान का अधिकार मिल जाने से तय है, यहां लोकतांत्रिक गतिविधियां भी कालांतर में बढ़ेंगी। करीब दो दशक पहले तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे, लेकिन सरकारी कोशिशों और इनकी बोली के जानकार दुभाषियों के माध्यम से समझाइश देने पर इन्होंने थोड़े-बहुत कपड़े पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिए हैं।

भारत की सांस्कृतिक विविधता अनूठी खूबसूरती है। यहां विभिन्न आदिवासी समुदायों को अपने पुरातन व सनातन परिवेश में रहने की स्वतंत्रता हासिल है। हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नग्नता कभी फूहड़ अश्लीलता का पर्याय नहीं रही। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक व स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया है। वरना हमारे यहां तो खजुराहो, कोणार्क और कामसूत्र जैसे नितांत व मौलिक रचनाधर्मिंता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृष्टि से परिपक्व लोग थे। अब लोगों को जो मत का अधिकार मिला है, उसके तहत ये अन्य समुदायों में विलय होंगे और इनका आवागमन भी बढ़ेगा। इनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता भी बढ़ेगी।
(लेख में विचार निजी हैं)

प्रमोद भार्गव


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