गुरुग्राम : क्यों बन जाता है जल-ग्राम

Last Updated 21 Sep 2024 01:51:09 PM IST

बीते तीन साल में सौ करोड़ खर्च हो गए लेकिन हर बारिश की फुहार के साथ दुनिया में मशहूर औद्योगिक शहर गुरुग्राम के दरिया बनने की दिक्कत गहराती गई। इस साल तो गुरु ग्राम अभी तक ग्यारह बार पानी भरने से बेसुध हो चुका है।


गुरुग्राम : क्यों बन जाता है जल-ग्राम

चौड़ी सड़कें, गगनचुंबी इमारतें और दमकती रोशनी उस समय निढाल हो जाती है जब थोड़ा बादल बरसने पर हाथीडुबाव पानी का ठहराव लाचारी का भाव देता है। हर बार कुछ घंटे के जाम में कई सौ करोड़ का घाटा गुरुग्राम को उठाना पड़ता है। सबसे बड़ी बात, अंतरराष्ट्रीय  संस्थाओं का इस शहर के प्रति विश्वास डगमगाता है, वह अलग।

इसमें कोई शक नहीं कि बीते एक दशक में गुरु ग्राम में  ढेर सारे फ्लाईओवर, अंडरपास, चौड़ी सड़कें बनीं, लेकिन इंद्र की थोड़ी सी कृपा  इंजीनियरों के तकनीक कौशल पर कालिख पोत देती है। बूंद-बूंद पानी को तरसने वाले गुरुग्रामवासी बरसात की आशंका से ही कांप जाते हैं। इस साल जलभराव के कारण कोई ग्यारह बार गुरुग्राम में कई-कई किलोमीटर लंबा जाम लग चुका है। महकमे इसके निदान के लिए और अधिक निर्माण करने की सिफारिश करते हैं, लेकिन समस्या के मूल में प्रकृति से छेड़छाड़ पर बात करने से बचते हैं।  

अचानक तेज और अप्रत्याशित बरसात हो जाना या नाले-सीवर साफ न होना जैसे कारण तो देश के हर शहर को बरसात में लज्जित कर ही रहे हैं, लेकिन गुरुग्राम के डूबने का असल कारण तो यहां के कई नदी-नालों को गुम कर वहां कंक्रीट का जंगल खड़ा करना है। असल में इस जलजमाव और उससे उपजे जाम का कारण गुड़गांव की बेशकीमती जमीन और उसे  हड़पने के लोभ में कब्जाई गई वे जमीनें हैं, जो असल में बेतहाशा बरसात में भी पानी को अपने में समा कर नजफगढ़ झील तक ले जाने का प्राकृतिक रास्ता हुआ करती थीं।

एनसीआर में यमुना नदी के बाद सबसे बड़े जल क्षेत्र को हमने कुछ ही दशकों में सुखा दिया और उस पर सीमेंट के जंगल रोप दिए, फिर जो लोग बसे उनके घर और रोजगार के ठिकानों से निकला गंदा पानी भी इसमें ही जुड़ता गया। अब सरकार खुद कहती है कि वह झील या ‘वाटर बॉडी’ थोड़े ही है, वह तो महज बारिश आने पर जमा पानी का गड्ढा है। यह दर्दनाक कथा है। कभी दिल्ली ही नहीं, देश की सबसे बड़ी झील, जल-क्षेत्र और वेटलैंड की। नजफगढ झील को कब्जा कर सिकोड़ते हुए दिल्ली का विस्तार करने वाले भूल चुके थे कि अब जो उनकी बस्ती में पानी भर रहा है, असल में झील का अपना भंडार है न कि उनकी रजिस्ट्री कारवाई जमीन। डेढ़ दशक पहले तक एक नदी हुआ करती थी-साहबी या साबी नदी। जयपुर जिले के सेवर की पहाड़ियों से निकल कर कोटकासिम के रास्ते धारूहेड़ा के रास्ते बहरोड़, तिजारा, पटौदी, झज्जर के रास्ते नजफगढ़ झील तक आती थी यह नदी।

इस नदी का प्रवाह नये गुरुग्राम में घाटा, ग्वालपहाड़ी, बहरामपुर, मेरावास, नगली होते हुए बादशाहपुर तक था। कई जगह नदी का पाट एक एकड़ तक चौड़ा था। आश्चर्य है कि इस नदी का गुरुग्राम की सीमा में कोई राजस्व रिकॉर्ड ही नहीं रहा। दस साल पहले हरियाणा विकास प्राधिकरण यानी हुडा ने नदी के जल ग्रहण क्षेत्र को आर जोन में घोषित कर दिया। इससे पहले यहां नदी के ‘रीवर बेड’ की जमीन कुछ किसानों के नाम लिखी थी। आर जोन में आते ही पचास लाख प्रति एकड़ की जमीन बिल्डरों की निगाह में आई और इसके दाम पंद्रह करोड़ एकड़ हो गई। जहां नदी थी, वहां सेक्टर 58-65 की कालेनियां और बहुमंजिला आवास तन गए।

अब बरसात तो पहले भी होती थी और उसका पानी इस नदी के प्रवाह के साथ नजफगढ़ के विशाल जल-क्षेत्र में समा जाता था। जब नदी के रास्ते में भवन बन गए तो पानी भवनों के करीब ही जमा होना लाजिमी है। थोड़ी सी बरसात में ही गुरुग्राम के पानी-पानी होने और और फिर साल भर बेपानी रहने का असल कारण केवल साबी नदी का लुप्त होना मात्र नहीं है, जमीन के लालच में कई नाले भी समाज गटक गया। डीएलएफ फेज तीन से सकिंदरपुर, सुचाराली से पालम विहार और बादशाहपुर से खांडसा होते हुए नजफगढ़ वाला नाला या साबी नदी का हिस्सा भी गुम हो गया। तीनों की जल-ग्रहण क्षमता कई हजार घन मीटर जल की थी।

कहने की जरूरत नहीं कि यह सारा पानी कारखानों, सड़कों पर तो जमा होना ही है। दिल्ली-गुड़गांव अरावली पर्वतमाला के तले है और अभी सौ साल पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर’ में जमा होती थी। ‘डाबर’ यानी उत्तरी-पश्चिम दिल्ली का वह निचला इलाका जो पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों और नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जो आज गुड़गांव के सेक्टर 107, 108 से ले कर दिल्ली के नये हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें और सरिता थीं, जो दिल्ली की जमीन, आबोहवा और गले को तर रखती थीं। आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बना नजफगढ़ नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी और रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील और वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साबी, साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के जरिए नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था।

1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई और अंग्रेजी हुकूमत ने नजफगढ़ नाले को गहरा कर उससे पानी निकासी की जुगाड़ की। उस दौर में इसे नाला नहीं, बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहा करते थे। नजफगढ़ नाले में पानी बढ़ने और दूसरी ओर यमुना में उफान के हालात में गुरुग्राम के फारूखनगर, दौलताबाद में यमुना के ‘बैकवॉटर’ से बाढ़ के हालात बन जाते हैं, और यह पानी इलाके के खेतों में महीनों जमा रहता है।

समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव बड़े शहरों को जकड़ेंगे ही और इसी जूझने के लिए प्रकृति की तरफ लौटना और  कुदरत के प्रति अपनी  गलतियों को सुधारना  ही निदान होगा, न कि और निर्माण कर देना। हमारी चिंता बस कुछ घंटों का जाम तो खुल जाने तक है, लेकिन जान लें कि जिस जल को बांध कर यह जाम उपजाया जा रहा है, वह बेशकीमती है, और उसका मार्ग रोकने का अर्थ है सौभाग्य का रास्ता बाधित करना। यदि गुरुग्राम को बाढ़ और सुखाड़ दोनों, से बचाना है तो नदी-नालों के पारंपरिक मागरे को तलाश कर उन्हें उनके नैसर्गिक रूप में लौटाना अनिवार्य है।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

पंकज चतुर्वेदी


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