महिला आरक्षण : होना चाहिए पचास फीसद
तैंतीस फीसदी ही क्यों, पचास फीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए होना चाहिए। इस पचास फीसदी में दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए।
महिला आरक्षण : होना चाहिए पचास फीसद |
आजादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का कानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा लें पर ये कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएं देश की आधी आबादी है, तो उन्हें उनके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का औचित्य क्या है?
क्या महिलाएं परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने, निर्णय लेने और कार्य करने में पुरु षों से कम सक्षम हैं? जो व्यवस्था की जा रही है, उससे तो यही लगता है। देखा जाए तो वे पुरु षों से ज्यादा सक्षम हैं, और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रही हैं। यहां तक कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक महिलाएं बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएं हैं। अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद पर महिलाएं चुनी जा चुकी हैं, और सफलतापूर्वक कार्य करती रही हैं। अगर जमीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का ध्यान कीजिए जो नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण के काम में कठिन मजदूरी करती है, और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा भी उठाती है। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मजदूर मजदूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं, या दारू पी कर घर में तांडव करते हैं।
हमारे देश की राष्ट्रपति जिस जनजातीय समाज से आती हैं वहां की महिलाएं घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईधन के लिए लकड़ी भी बीन कर लाती हैं। कह सकते हैं कि देश के दूरदराज के इलाकों में महिलाओं को ऐसी ही कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएं पुरु षों से आगे हैं, तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों है? जो अधिकार उन्हें दिए जाने की घोषणा संसद के विशेष अधिवेशन में दी गई वो भी अभी 5-6 वर्षो तक लागू नहीं होगी।
तो उन्हें मिला ही क्या कोरे आासन के सिवाय। इस संदर्भ में कुछ अन्य खास बातों पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। आज के दौर में ग्राम प्रधान और नगर पालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए तथा महानगरों के मेयर पद के लिए जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, उनका क्या हश्र हो रहा है, यह भी देखने और समझने की बात है। देश के हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलित हुआ है, ‘प्रधान पति’। मतलब यह कि महिलाओं के लिए आरक्षित इन सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं। ऐसी सब महिलाएं प्राय: अपने पति की ‘रबड़ स्टाम्प’ बन कर रह जाती हैं। इसलिए आवश्यक है कि हर शहर के एक स्कूल और एक कॉलेज में नेतृत्व प्रशिक्षण का कोर्स चलाया जाए जिसमें दाखिला लेने वाली महिलाओं को इन भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे भविष्य में उन्हें अपने पतियों पर निर्भर न रहना पड़े।
इसके साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालयों से भी ये निर्देश जारी हों कि ऐसी सभी चुनी गई महिलाओं के पति या परिवार के कोई अन्य पुरुष सदस्य अगर उनका प्रतिनिधत्व करते हुए पाए जाएंगे तो इसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। उस क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक उसकी इस हरकत की शिकायत कर सकेगा। आज तो होता यह है कि जिला स्तर की बैठक हो या प्रदेश स्तर की या चुनी हुई इन प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण का शिविर हो, हर जगह पत्नी के बॉडीगार्ड बन कर पति मौजूद रहते हैं। यहां तक कि चुनाव के दौरान और जीतने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के होर्डिंगों पर इनके चित्र के साथ इनके पति का चित्र भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस पर भी चुनाव आयोग को प्रतिबंध लगाना चाहिए। कोई भी होर्डिंग ऐसा न लगे जिसमें ‘प्रधान पति’ का नाम या चित्र हो।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर हमेशा से जोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर की चौखट से पांव बाहर रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरुष अवश्य होगा। इन्हीं रूढ़िवादी सोच के चलते महिलाओं को घर की चारदिवारी में ही सिमट कर रहना पड़ा परंतु जैसे सोच बदलने लगी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिए जाने में किसी को कोई गुरेज नहीं।
आज महिलाएं पुरु षों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां वे अपनी धाक न जमा रही हों। इसलिए महिलाओं को पुरु षों से कम नहीं समझा जाना चाहिए। कहा जाना जरूरी है कि नारी शक्ति वंदन विधेयक लाकर सरकार ने अच्छी पहल की है किंतु इसके बावजूद महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने में वर्षो की देरी के कारण ही विपक्ष आज सरकार को घेर रहा है।
वैसे हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि सभी महिलाएं पाक-साफ या दूध की धुली होती हैं, और बुराई केवल पुरु षों में होती है। पिछले कुछ वर्षो में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले स्तर के अधिकारियों से लेकर महिला आईएएस और आईपीएस अधिकारी तक बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए यह मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातोंरात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी ही होगी। जैसी बुराई पुरुष समाज में है, वैसी ही बुराइयां महिला समाज में भी हैं क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता। पर कुछ अपवादों के आधार पर यह फैसला करना कि महिलाएं अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं हैं- इसलिए फिलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है-ठीक नहीं है। यह सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दे दिया जाएगा, सपने दिखाने जैसा है। अगर हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा ढर्रे पर ही महिलाओं के नाम पर यह खानापूर्ति होती रही तो पक्की बात है कि भविष्य में कभी कुछ नही बदलने वाला। कुछ नहीं बदलेगा।
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