दांव-पेच : सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति
पक्ष विपक्ष के बीच राजनीति और रणनीति बहुत तेज गति से दिलचस्प चुनावी रण की तरफ बढ़ रही है। लोक सभा चुनाव 2024 में मोदी मैजिक बरकरार रहेगा या विपक्षी एकजुटता बाजी मार जाएगी। यह सवाल अब पहेली बनता जा रहा है।
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हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में कहा कि अगर जनता एनसीपी, सपा, राजद, डीएमके जैसी परिवारवादी पार्टयिों को वोट करेगी तो इन दलों के प्रमुख नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा। उन्होंने कांग्रेस सहित भाजपा के खिलाफ लामबंद सभी विपक्षी दलों को भ्रष्ट भी बताया और उन पर लगभग बीस लाख करोड़ का भ्रष्टाचार करने का आरोप मढ़ दिया। लगता है कि चुनाव में भाजपा के सामने परिवारवाद और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने के अलावा विकल्प नहीं है। एक पुराना सवाल भी दुहराया जा रहा है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष की तरफ प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन होगा? भाजपा को बिखरे हुए विपक्ष में अपनी निश्चित जीत दिखती है।
यही कारण है कि वह विपक्षी एकजुटता को खंडित करने की जोरदार कोशिश कर रही है। बीते वर्ष अगस्त में नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ महागठबंधन के समर्थन से बिहार में सत्ता परिवर्तन किया। मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के पश्चात नीतीश ने खुलेआम घोषणा की कि वे भाजपा के खिलाफ देश स्तर पर सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश करेंगे ताकि मोदी सरकार को हराया जा सके। इसी निश्चय को फलीभूत करने के लिए नीतीश-तेजस्वी ने अनेक विपक्षी दल के नेताओं से मिलकर एकजुटता का प्रयास किया जिसके परिणामस्वरूप 23 जून, 2023 को पहली विपक्षी बैठक पटना में हुई। पंद्रह दलों के अध्यक्ष और नेताओं ने एकजुट होकर मोदी सरकार को लोक सभा में हराने की प्रतिबद्धता दोहराई।
भाजपा की मोर्चाबंदी के बिंदु पर एनसीपी (शरद पवार), शिव सेना (उद्धव), डीएमके, टीएमसी, झामूमो, राजद, जदयू, सपा और वाम दल समूह जैसी पार्टयिों के बीच सहमति लगभग बन चुकी है। अब लोक सभा की एक सीट-एक उम्मीदवार के फॉर्मूले पर चुनावी रणनीति भी तैयार होंगी। मोदी बनाम विपक्षी चेहरे की बजाय जन सरोकार के मुद्दे ही चुनाव अभियान के केंद्र में होंगे और उन मुद्दों को रेखांकित भी किया जाएगा। मुहिम में कांग्रेस ने राज्य स्तर पर बड़ा दिल दिखाने का मन बना चुकी है।
महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और बिहार में जदयू जैसे तीन राज्य-स्तर पर मजबूत घटक दल भाजपा का साथ छोड़कर उसके मुखर विरोधी बन चुके हैं। टीएमसी जैसे भाजपा के पूर्व सहयोगी दल भी मोदी सरकार की खुलकर मुखालफत कर रहे हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर जैसी पार्टयिां, जो मुद्दों के आधार पर सरकार के साथ खड़ी रही हैं, भी गठबंधन में आने को तैयार नहीं दिख रहीं। उत्तर-पूर्व में मणिपुर में गृह युद्ध जैसी स्थिति भी भाजपा द्वारा प्रचारित डबल इंजन सरकार की विफलता ही मानी जाएगी। ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में भाजपा दोहरे संकट से गुजर रही है। पहला, कोई नया राजनीतिक दल फिलहाल भाजपा के साथ आने को तैयार नहीं दिख रहा। दूसरा, हालिया संपन्न कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2023 में प्रयास के बावजूद मिली हार से भाजपा विचलित है। मोदी सरकार को हराना नामुमकिन है, अब यह धारणा स्वाभाविक ढलान पर है।
इसके तीन प्रमुख कारण हैं, जिनमें पहला भ्रष्टाचार है। भाजपा की नजर में कोई दल या उसके नेता तभी तक भ्रष्टाचारी या दागी हैं, जब तक वे विरोधी खेमे में हैं। एक तरफ भाजपा विपक्ष को भ्रष्टाचारियों का गठबंधन साबित करने में जुटी है वहीं विपक्ष भी भाजपा को उन तथाकथित भ्रष्टाचारियों के लिए वाशिंग मशीन बता रहा है, जो दबाव में या बागी बनकर विपक्ष से भाजपा के साथ चले जाते हैं। इसलिए विपक्षी एकजुटता के खिलाफ भ्रष्टाचार का नैरेटिव वांछित प्रभाव नहीं डाल पा रहा।
दूसरा, विपक्षी दलों को तोड़ने या डराने के लिए ईडी/आईटी/सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग भी स्थापित प्रचलन बन गया है। जनविमर्श में इनके द्वारा छापों का मतलब सिर्फ टीवी में ब्रेकिंग न्यूज और समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ की खबर बन कर रह गया है। तीसरा, जन सरोकार के मुद्दे पर दस साल का हिसाब देना भी भाजपा के लिए चुनौती है। चुनावी वर्ष भाजपा के वायदों के आकलन, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, केंद्र-राज्य संबंध और भाजपा की राजनीति व शासन का समेकित विवेचन वर्ष होगा। इन मुद्दों को विपक्षी गठबंधन अपने चुनाव अभियान में शामिल कर मोदी सरकार को घेरेगा वहीं भाजपा अपने प्रचारतंत्र से जवाब देगी। देखना दिलचस्प होगा कि जनमानस को कौन ज्यादा प्रभावित कर पाता है। एक तरफ जो डर जाए वो मोदी नहीं नैरेटिव है, तो डर से लड़ने को विपक्षी दलों की तैयारी बैठक 17-18 जुलाई, 2023 को बैंगलुरू में हो रही है। देखा जाना है कि विपक्षी एकजुटता की कवायद क्या रंग लेती है।
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