आपदा प्रबंधन : कैसे कम हो बाढ़ का खतरा
इस बार मानसून वर्षा के आरंभिक दौर में ही अनेक क्षेत्रों में बाढ़ का गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। अत: आगामी दिनों में बाढ़ के खतरे को नियंतण्रकरने पर अधिक ध्यान देना होगा।
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विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देना होगा और बांधों व डैम का प्रबंधन सावधानी से करना होगा। प्रभावित लोगों को राहत पंहुचाने के साथ ही उचित सावधानियों को अपना कर बाढ़ की गंभीरता को भी कम करना होगा।
आपदा बचाव और प्रबंधन ने कई संदर्भ में बहुत प्रगति की है, पर इसके बावजूद आपदाओं से जुड़ी चिंताएं बढ़ रही हैं। इसकी एक वजह यह है कि जलवायु बदलाव के जिस दौर में हम प्रवेश कर रहे हैं, उसमें अधिक अनिश्चित और अतिवादी मौसम की अपेक्षा है, जिसके कारण कई आपदाएं और विकट रूप से उपस्थित होने की भरपूर संभावना है। कई स्थानों पर बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के संदर्भ में यह भी देखा गया है कि बचाव कायरे पर काफी खर्च होने के बावजूद समस्या पहले से और विकट रूप में उपस्थित हो रही है। भू-स्खलन बढ़ रहे हैं। बाढ़ अधिक उग्र और विनाशकारी हो रही है। इस कारण आपदा प्रबंधन में सुधारों की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है। आपदा प्रबंधन आपदा से होने वाली क्षति और दुख-दर्द को कई स्तरों पर रोकने से जुड़ा है। जहां हो सके तो आपदा की विनाशकारी संभावना को कई तरह से कम किया जा सके, लोगों में इसका सामना बेहतर करने की क्षमता को बढ़ाया जाए, बाद में उनकी सहायता और पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था हो-ये सब आपदा प्रबंधन के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। आपदा प्रबंधन के उद्देश्य केवल अल्पकालीन नहीं हैं अपितु दीर्घकालीन और व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए आपदाओं से क्षति कैसे कम की जाए, यह भी आपदा प्रबंधन का उद्देश्य है।
बाढ़ और बाढ़-नियंतण्रके बारे में कुछ नये सिरे से सोचने की जरूरत महसूस की जा रही है क्योंकि बहुत खर्च करने के बाद भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बढ़ रहा है। ऐसा क्यों हुआ इसके अनेक कारण बताए जाते हैं। जैसे जल निकासी के रास्तों को अवरुद्ध करते हुए नई बस्तियां बसाना (विशेषकर शहरी और शहरीकृत हो रहे क्षेत्रों में), सड़कों, नहरों और रेल मागरे के निर्माण के समय निकासी की पर्याप्त व्यवस्था न करना, संसाधनों के अभाव या दुरुपयोग के कारण वर्षा से पहले नालों की सफाई जैसे जरूरी कार्य न करना आदि। अलग-अलग जगहों पर ये सभी कारण महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। तटबंधों का बाढ़ नियंतण्रउपाय के रूप में महत्व तो है पर साथ में इनकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं तथा दूसरे निर्माण कार्य और रख-रखाव में लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण हमने इनसे जुड़ी समस्याओं को और भी बढ़ा दिया है।
तटबंध द्वारा नदियों को बांधने की एक सीमा तो यह है कि जहां कुछ बस्तियों को बाढ़ से सुरक्षा मिलती है, वहां कुछ अन्य बस्तियों के लिए बाढ़ का संकट बढ़ने की संभावना भी उत्पन्न होती है। अधिक गाद लाने वाली नदियों को तटबंध से बांधने में एक समस्या यह भी है कि नदियों के उठते स्तर के साथ तटबंध को भी निरंतर ऊंचा करना पड़ता है। जो आबादियां तटबंध और नदी के बीच फंस कर रह जाती हैं, उनकी दुर्गति के बारे में तो जितना कहा जाए कम है। केवल कोसी नदी के तटबंधों में लगभग 85 हजार लोग इस तरह फंसे हुए हैं। ऐसे लोगों के पुनर्वास के संतोषजनक प्रयास बहुत कम हुए हैं। तटबंधों द्वारा जिन बस्तियों को सुरक्षा देने का जो वायदा किया जाता है, उससे भी बाढ़ की समस्या बढ़ सकती है। यदि वर्षा के पानी के नदी में मिलने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया जाए और तटबंध में इस पानी के नदी तक पंहुचने की पर्याप्त व्यवस्था न हो तो दलदलीकरण और बाढ़ की एक नई समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि नियंत्रित निकासी के लिए जो कार्य करना था उसकी जगह छोड़ दी गई है पर लापरवाही से कार्य पूरा नहीं हुआ है, तो भी यहां से बाढ़ का पानी बहुत वेग से आ सकता है। तटबंध द्वारा ‘सुरक्षित’ की गई आबादियों के लिए सबसे कठिन स्थिति तो तब उत्पन्न होती है, जब निर्माण कार्य या रख-रखाव उचित न होने के कारण तटबंध टूट जाते हैं, और अचानक बहुत सा पानी उनकी बस्तियों में प्रवेश कर जाता है। इस तरह जो बाढ़ आती है, वह नदियों के धीरे-धीरे उठते जल-स्तर से कहीं अधिक विनाशकारी होती है।
इसी तरह बांध या डैम निर्माण से कितनी बाढ़ सुरक्षा हो रही है, इस बारे में भी कुछ सवाल उठाना जरूरी है। बांध प्राय: सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के लिए बनाए जाते हैं पर साथ ही उनसे बाढ़ नियंतण्रका महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होगा, यह भी कहा जाता है। यह लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब अधिक वर्षा के समय बांध के जलाशय में पर्याप्त जल रोका जा सके और बाद में उसे धीरे-धीरे नियंत्रित ढंग से छोड़ा जा सके। पर पहाड़ों में जो वन-विनाश और भू-कटाव हुआ है, उससे जलाशयों में बहुत मिट्टी-गाद भर गई है, और जल रोकने की क्षमता कम हो गई है। इसी कारण तेज वर्षा के दिनों में पानी भी बहुत अधिक होता है क्योंकि वर्षा के बहते जल का वेग कम करने वाले पेड़ कट चुके हैं। बांध के संचालन में सिंचाई और पनबिजली के लिए जलाशय को अधिक भरने का दबाव होता है। दूसरी ओर, वर्षा के दिनों में बाढ़ से बचाव के लिए जरूरी होता है कि जलाशय को कुछ खाली रखा जाए। दूसरे शब्दों में बांध के जलाशय का उपयोग बाढ़ बचाव के लिए करना है तो पनबिजली के उपयोग को कुछ कम करना होगा। ऐसा नहीं होता है तो जलाशय में बाढ़ के पानी को रोकने की क्षमता नहीं रहती है। ऐसी स्थिति में बहुत सा पानी वेग से एक साथ छोड़ना पड़ता है जो भयंकर विनाश उत्पन्न कर सकता है।
कोई बड़ा बांध टूट जाए तब तो खैर पल्रय ही आ जाती है जैसा मच्छू बांध टूटने पर मोरवी शहर के तहस नहस होने के समय देखा गया। पर बांध बचाने के लिए जब बहुत सा पानी एक साथ छोड़ा जाता है उससे जो बाढ़ उत्पन्न होती है, वह भी सामान्य बाढ़ की अपेक्षा कहीं अधिक विनाशक और जानलेवा होती है। हम पिछले कुछ वर्षो के बाढ़ के दिनों के समाचारपत्रों को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि सबसे अधिक विनाशक और जानलेवा बाढ़ प्राय: वहीं आई जहां तटबंध टूटे या बांध से बड़े पैमाने पर पानी छोड़ा गया। अब आगे जो भी नियोजन हो, उसके लिए बाढ़ के इस बदलते रूप को ध्यान में रखना जरूरी है। हमें आगे बाढ़ नियंतण्रको अधिक असरदार बनाने के लिए ऐसे अनुभवों से सीखना होगा ताकि बाढ़ के अधिक विनाशकारी रूप से बचा जा सके। जलवायु बदलाव के दौर में यह बहुत जरूरी हो गया है। संभवत: सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों और पर्वतीयों क्षेत्रों के वनों और पर्यावण की रक्षा की जाए।
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