सियासत : महागठबंधन की माया
भाजपा की भारी जीत के साथ ही एक बार फिर सभी विपक्षी दलों के महागठबंधन की हवा तेज बहने लगी है.
सियासत : महागठबंधन की माया |
यों तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा सिर्फ उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में ही पूरी तरह जीती है. पंजाब में तो उसे अपने सहयोगी अकाली दल के साथ बुरी हार का मुंह देखना पड़ा है. मणिपुर और गोवा में तो कांग्रेस सरकार बनाने से जरा भर ही पीछे रह गई थी, लेकिन अपनी राजनैतिक चतुराई और केंद्र में सत्ता की ताकत से भाजपा ने दोनों ही राज्यों में कुछ छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को मंत्री पद वगैरह देकर उससे सरकार झटक ली. शायद भाजपा की बढ़ती इसी ताकत को 2019 के आम चुनाव में उसे सीधी टक्कर देने के ख्याल से सभी भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू हो गई है.
इसमें दो राय नहीं कि हिन्दी पट्टी से ही भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भारी राजनैतिक ताकत मिली है. इसीलिए महागठबंधन बनाकर बिहार में 2015 में जब नीतीश कुमार की जदयू, कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव के राजद ने भाजपा गठजोड़ को धूल चटा दी तो माना गया था कि मोदी का जादू उतरने लगा है, जो 2014 के लोक सभा चुनाव में खासकर देश के पश्चिमी और उत्तरी हिस्से में नशे की तरह सवार हुआ. लेकिन 2017 में उत्तर प्रदेश ने फिर साबित किया कि उसे मोदी और भाजपा को ताकत देने का काफी दम है.
इस जनादेश ने सामाजिक न्याय और अम्बेडकरवादी राजनीति के नाम पर ठोस जमीन पर खड़ी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का लगातार दूसरे चुनाव में (2014 के लोक सभा चुनाव के बाद) लगभग सूपड़ा साफ कर दिया. इसलिए उनके सामने अब वजूद बचाने की चुनौती आ खड़ी हुई है. बसपा की मायावती ईवीएम में छेड़छाड़ को अपना अगला अस्त्र बनाने की सोच रही हैं. अखिलेश यादव और उनका कुनबा ऐसे सदमे में है कि अभी कुछ ढंग से बोल भी नहीं पा रहा है. हालांकि, उसने भी ईवीएम में छेड़छाड़ के आंकड़े जुटाना शुरू कर दिया है. राहुल गांधी ने तो शायद कुछ दिनों के लिए मैदान छोड़ना ही बेहतर समझा है. हां, सूत्रों पर यकीन करें तो इन सभी में अपना वजूद बचाने के लिए एक विशाल महागठबंधन बनाने के लिए बातचीत शुरू हो गई है.
नतीजों के दिन 11 मार्च को ही मायावती ने ईवीएम में छेड़छाड़ का आरोप लगाने के पहले ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार वगैरह से बातचीत की. अखिलेश यादव पहले ही मायावती से हाथ मिलाने की बात कह चुके हैं. उन्होंने बाद में मायावती के ईवीएम में छेड़छाड़ के आरोप पर अपनी सहमति जता दी. अगले दिन 12 मार्च को पुरी में समाजवादी नेता रवि राय की अंत्येष्टि पर जुटे शरद यादव, एच.डी. देवेगौड़ा जैसे नेताओं के साथ भी नवीन पटनायक की महागठबंधन पर बातचीत हुई. लेकिन ये कोशिशें एक नहीं, कई बार हो चुकी हैं और नाकाम हो चुकी हैं. अभी तक ये नेता अपने जाति समीकरणों और आंकड़ों के सहारे ही मोदी के महारथ को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.
वैसे, उत्तर प्रदेश में भी आंकड़ों को देखें तो सभी मिलकर भाजपा गठबंधन के वोट प्रतिशत से अधिक पा सकते हैं. इस बार वहां भाजपा को 39.6 प्रतिशत वोट मिला है, जो लोक सभा चुनाव में हासिल 42 प्रतिशत मतों से कुछ कम है. परंतु 2017 के विधान सभा चुनाव में भी सपा (21.9 प्रतिशत), कांग्रेस (6.7 प्रतिशत) और बसपा (22.4 प्रतिशत) को एक मोच्रे में बांध दें तो वोट 50 प्रतिशत से ऊपर जा बैठता है. यह भी गौर करने वाली बात है कि आंकड़ों में इन दलों की वोट हिस्सेदारी लोक सभा चुनाव से घटी नहीं है. लेकिन चुनाव महज आंकड़ों का ही खेल नहीं होता, वह धारणाओं और मंतव्यों का भी मामला होता है. इसी मामले में मोदी उनसे काफी आगे दिखते हैं.
उन्होंने न सिर्फ युवाओं में नई महत्त्वाकांक्षा जगाई है, गरीबों को भी भरोसा दिलाने में कामयाब हुए हैं. दूसरे, उन्होंने और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बसपा, सपा और कांग्रेस से टूटे नेताओं और जाति समूहों का ऐसा इंद्रधनुषी गठबंधन कायम किया कि माहौल बदल गया. फिर तो हाशिए पर खड़े लोगों को भी मोदी पसंद आने लगे. गौर कीजिए कि भाजपा के करीब आधे जीते विधायक दूसरी पार्टियों से लाए गए हैं. पार्टी ने 160 ऐसे प्रत्याशी खड़े किए थे. यही इंद्रधनुषी समीकरण भाजपा की जीत की असली वजह है. इसी समीकरण को न सिर्फ सपा और कांग्रेस ने नजरअंदाज करने की कोशिश की, बल्कि मायावती ने तो अति पिछड़ी जातियों और सवर्णो को बस टिकट देकर ही सोचा कि वे वोट देने को मजबूर हैं.
मायावती दलित-मुसलमान गठजोड़ बनाने में इस कदर मशगूल हुई कि उन्होंने बाकी जातियों की परवाह ही छोड़ दी. उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी जैसे तमाम नेताओं को अपने पाले से जाने दिया. उनसे टूटकर बनी राजभरों की भारतीय समाज पार्टी को भी भाजपा ने मिला लिया. इसी तरह सपा-कांग्रेस गठजोड़ कायम हुआ तो यह संदेश गया कि यह भी मुसलमान वोटों को अपनी ओर करने का साधन मात्र है. मुसलमान वोटों पर इस कदर जोर से भाजपा ने ध्रुवीकरण की कोशिश की. मोदी, शाह और भाजपा नेताओं ने कब्रिस्तान जैसे बयान दिए और वह काम कर गया.
इसका सबसे ज्यादा असर जाट लैंड में देखने को मिला. पहले जाटों का रुख अजित सिंह के रालोद की ओर होता दिख रहा था लेकिन ध्रुवीकरण का असर यह हुआ कि उन्हें महज अपनी परंपरागत सीट छपरौली और महज 1.9 प्रतिशत वोटों से संतोष करना पड़ा. असल में कांग्रेस का सपा के साथ जाना भी ऊंची जातियों में उसके रहे-सहे वोट बैंक को खिसका गया.
अखिलेश की छवि तो अच्छी थी और उन्हें विकास करने वाला भी माना जा रहा था मगर उनके कुनबे की कलह अंत तक चलने से वह भरोसा नहीं बन पाया. कई सीटों पर तो यादवों के वोट भी भाजपा की ओर जाते दिखे हैं. बेशक, सबसे परेशान मायावती हैं, क्योंकि उनकी बसपा के खाते में आई महज 19 सीटों से जितनी दिक्कत नहीं है, उससे बड़ा संकट उनका मूल आधार दलित और अति पिछड़ी जातियों के खिसकने का है. इसीलिए उन्होंने ईवीएम में छेड़छाड़ का मुद्दा उठाया. बहरहाल, बिहार की तरह महागठबंधन बन पाएगा या नहीं, उसका असर उतना व्यापक होगा या नहीं, अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी.
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