एकल परिवार : बुजुर्गों का पुरसाहाल नहीं
आज भारतीय समाज में वरिष्ठ नागरिकों का कोई पुरसाहाल नहीं है. कहने को तो वह प्यार और सम्मान के हकदार हैं, लेकिन असलियत में वह पूरी तरह उपेक्षित हैं.
एकल परिवार : बुजुर्गों का पुरसाहाल नहीं |
रिसर्च एंड एडवोकेसी सेंटर ऑफ एजवेल फाउंडेशन द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि आज की युवा पीढ़ी न केवल वरिष्ठजनों के प्रति लापरवाह है, बल्कि वह उन लोगों की समस्याओं के प्रति जागरूक भी नहीं है. वह पड़ोस के बुजुर्गों को तो सम्मान दिखाने के लिए तत्पर दिखती है मगर अपने ही घर के बुजुर्गों की उपेक्षा करती है, उन्हें नजरअंदाज करती है.
सर्वेक्षण के अनुसार 59.3 फीसद लोगों का मानना है कि समाज और घर में बुजुर्गों के साथ व्यवहार में विरोधाभास है. केवल 14 फीसद का मानना है कि घर हो या बाहर दोनों ही जगह बुजुर्गों की हालत एक जैसी है, उसमें कोई अंतर नहीं है. जबकि 25 फीसद के अनुसार घर में बुजुर्गों का सम्मान खत्म हो गया है.
वह बात दीगर है कि कुछ फीसद की राय में घर में बुजुर्गों को सम्मान दिया जाता है. असलियत तो यह है कि परिवार के सदस्य अपने घर के बुजुर्गों को हल्के में लेते हैं, इसके बावजूद बुजुर्ग उन पर अपना अधिकार तक नहीं जताना चाहते. वह उस उम्र में भी सक्रिय रहना चाहते हैं. रपट की मानें तो 50 फीसद लोग यह मानते हैं कि कार्यस्थलों पर भी उनके साथ भेदभाव होता है, जिसके चलते उनकी पदोन्नति भी प्रभावित होती है. तात्पर्य यह कि बुजुर्ग हर जगह उपेक्षित हैं और आज की युवा पीढ़ी उन्हें बेकार की चीज मानने लगी है, वह यह नहीं सोचती कि उनके अनुभव उनके लिए बहुमूल्य हैं, जो उनके जीवन में पग-पग पर महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं.
देखा जाए तो संयुक्त परिवार के प्रति जो प्रतिबद्धता युवाओं में साठ-सत्तर के दशक तक दिखाई देती थी, आज उसका चौथाई हिस्सा भी नहीं दिखाई देता. एक शिक्षित महिला जो तीन विषयों में एमए है, बीएड है, एमएड है व एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्राध्यापिका भी हैं, कहती हैं कि जहां तक परिवार का सवाल है, हमारा परिवार तो मैं, मेरे पति व मेरे बच्चे हैं. सास-ससुर व देवर-ननद हमारा परिवार नहीं है. विडम्बना तो यह है कि पत्नी के कथन से पति महोदय पूरी तरह सहमत हैं.
इस स्थिति में संयुक्त परिवार की कल्पना ही व्यर्थ है. इस स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित परिवार के बुजुर्ग होते हैं. इसमें दो राय नहीं है कि जो सुरक्षा और सम्मान परिवार के बुजुर्गों को आज से तकरीब 40-50 साल पहले प्राप्त था, आज नहीं है. दरअसल, बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना हमारी संस्कृति और परंपरा को दर्शाती है. इसका श्रेय भी संयुक्त परिवार प्रथा को जाता है. भारतीय संयुक्त परिवार प्रथा में बुजुर्गों का स्थान सम्मानजनक रहा है. परिवार के मुखिया को विशिष्ट सलाहकार और नियंत्रक के रूप में माना जाता रहा है.
पश्चिमी प्रभाव, शहरीकरण और वैीकरण के इस दौर ने संयुक्त परिवार प्रथा को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है. हमारे यहां संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, जबकि पश्चिमी जगत में हमारी संयुक्त परिवार प्रथा को एकाकी जीवन से छुटकारा पाने का एक कारगर उपाय माना जा रहा है. आज सबसे अहम जरूरत बुजुर्गों की परेशानियों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की है ताकि वे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से खुद को समाज और परिवार से अलग-थलग महसूस न कर पाएं. सरकार को चाहिए कि वह उनके लिए समुचित पेंशन की व्यवस्था करे और उन्हें सुरक्षा प्रदान करे. साथ ही 1999 में इस के लिए बनी नीति की समीक्षा की जाए, जिससे यह पता चल सके कि आखिर उनकी जरूरतों को किस तरह पूरा किया जा सकता है.
सबसे पहले घर के बुजुर्गों का ख्याल न रखने वाले परिवार के सदस्यों पर कड़ाई का कानून जो 2007 में बनाया गया है, उसे और कड़ा किया जाए. जब वही अपने दायित्व से विमुख हो जाएंगे, उस दशा में सरकार के प्रयास बेमानी साबित होंगे. इसमें दो राय नहीं कि बुढ़ापे में सतांन अक्सर उनसे छुटकारा पाना चाहती है. वह बूढ़े हो चुके मां-बाप को एक बोझ समझती है. केंद्र सरकार ने महिलाओं की तरह ही बुजुर्गों के लिए अलग से बजट बनाने पर काम शुरू किया है ताकि बुजुर्गों की उचित देखभाल की जा सके और आबादी के इस आठ फीसद हिस्से को सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं प्रदान कर उनके हितों की रक्षा कर वह अपना दायित्व पूरा कर सके. सरकार का यह प्रयास और इस वर्ग के प्रति उसकी जागरूकता सराहनीय है लेकिन इस पर अमल कब तक होगा, भगवान भरोसे है.
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