राहुल की दलित नीति
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी जब भी कुछ कहते हैं तो वह बहुत से लोगों को बहुत तरह से सोचने का मसाला भी दे देते हैं।
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कभी-कभी इतना अटपटा बोल देते हैं कि वह गैर कांग्रेसियों के बीच मजाक बन जाते हैं और फिर पूरी कांग्रेस को क्षतिपूर्ति के अनुष्ठान में लग जाना पड़ जाता है। चाहे उनका लोक सभा चुनाव के दौरान दिया गया शक्ति वाला बयान हो या हरियाणा चुनाव के दौरान दिया गया जलेबी के कारखाने वाला बयान हो। वह प्राय: अपने बयानों की गंभीरता को बनाए नहीं रख पाते। इस बार उन्होंने एक बार फिर अपनी पार्टी को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
दलित बुद्धिजीवियों के सम्मेलन में आमंत्रित वक्त के रूप में उन्होंने कहा कि जब तक दलित और पिछड़े कांग्रेस के साथ थे तब तक आरएसएस सत्ता से दूर रहा, लेकिन 1990 के बाद यानी नरसिंह राव के शासनकाल में कांग्रेस दलित और पिछड़ों को अपने साथ जोड़कर नहीं रख सकी। अब वह कांग्रेस की इस गलती को सुधारना चाहते हैं। दलित और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाने के लिए कांग्रेस के भीतर ही क्रांति करेंगे।
आशा यह है कि दलित-पिछड़ों को अपनी पार्टी में जगह देकर दलित-पिछड़े समूह को अपनी पार्टी से जोड़ेंगे और अपना खोया हुआ जनाधार फिर से प्राप्त करेंगे और उनके बल पर संघ और भाजपा को सत्ता से बाहर करेंगे। इसके लिए उन्होंने यह आशंका भी जताई है कि अपनी पार्टी में विरोध भी सहना पड़ सकता है लेकिन वह इस इरादे को पूरा करने के लिए किसी की भी नहीं सुनेंगे। यह हास्यास्पद स्थिति है कि कांग्रेस का शीषर्स्थ नेता एक नीतिगत प्रश्न को एक सामान्य बैठक में इस तरह से प्रस्तुत करे।
पहले उन्हें अपनी पार्टी के भीतर यह बात रखनी चाहिए थी पार्टी में दलित और पिछड़ों को क्या जगह दी जाए, कैसे दी जाए इसकी प्रक्रिया तय करनी चाहिए थी और जब एक स्पष्ट रणनीति निर्धारित हो जाती तो उसे जनता के सामने स्पष्टत: रखना चाहिए था। उन्हें यह भी समझना चाहिए था कि जो दलित और पिछड़े समूह स्वयं शक्तिशाली होकर इस या उससे गठजोड़ करने की स्थिति में हैं, वे राहुल गांधी की कृपा पर क्यों रहेंगे। लेकिन राहुल गांधी तो राहुल गांधी हैं। अब उनकी पार्टी तय करेगी कि उनके इस नीति वक्तव्य का वह क्या करे।
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