उत्तर भारत में कभी भी थरथरा सकती है धरती
उत्तराखंड समेत उत्तर भारत के दिल्ली, यूपी, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि के इलाके भूकंपीय मानचित्र के अनुसार जोन चार में होने से भूकंप आपदा के निशाने पर हैं.
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आईआईटी के वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि मध्य हिमालय में लगभग तीन से चार हजार किमी लंबा फाल्ट ऐसा क्षेत्र है जहां कोई बड़ा भूकंप लंबे समय से नहीं आया है. इसलिए धरती के अंदर चल रही हलचल और भूगर्भीय प्लेटों के टकराव से उत्पन्न हो रही भारी ऊर्जा अभी धरती के गर्भ में ही इकठ्ठी हो रही है. यह कब चट्टानों को तोड़ते हुए रास्ता बनाकर भूकंप का रूप ले ले, कुछ कहा नहीं जा सकता. आईआईटी भूगर्भ विज्ञान विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक एवं वैज्ञानिक प्रो. एके पचौरी का कहना है कि सेस्मिक थ्योरी में दो स्थानों को माना गया है.
पहला जहां भूकंप आये हैं और दूसरा जहां कभी बड़ा भूकंप नहीं आया. उन्होंने बताया कि हिमालय क्षेत्र में 1905 के कांगड़ा भूकंप के बाद रिक्टर पैमाने पर आठ या इससे अधिक तीव्रता का भूकंप न आने से यह आशंका स्वाभाविक है कि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व इससे जुड़े मैदानी इलाकों में कभी भी बड़ा भूकंप आ सकता है. जबकि कई अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तरी भारत में भूकंप आने की आशंका को लेकर भी वैज्ञानिक एकमत नहीं रहे हैं.
एक अमेरिकन वैज्ञानिक रोजर वेलहम व उनकी समर्थक भारतीय लाबी का अनुमान है कि उत्तराखंड समेत उत्तरी भारत में कभी भी आठ या उससे अधिक तीव्रता का भूकंप आ सकता है. प्रो. पचौरी के अनुसार गढ़वाल क्षेत्र के उत्तरकाशी (1991), चमोली के (1993) के भूकंप हालांकि रिक्टर पैमाने पर छह से अधिक तीव्रता वालेरहे हैं. उनमें काफी जान माल का नुकसान उठाना पड़ा है. इसलिए इन दोनों बड़े भूकंपों के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिकों का आकलन है कि इस क्षेत्र के जोन पांच के सबसे सम्भाव्य एवं जोन चार के अपेक्षाकृत कम संवेदनशील क्षेत्रों में भूकंप आने की आशंका बनी हुई है.
आईआईटी के भूकंप विभाग के ही प्रो. एमएल शर्मा के अनुसार जापान में भूकंप संबंधी उन्नत टेक्नोलॉजी विकसित होने के बावजूद वहां के वैज्ञानिक इस सुनामी की भविष्यवाणी नहीं कर सके. इसलिए भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारी तैयारियां अथवा टेक्नोलॉजी बड़े भूकंपों की भविष्यवाणी को लेकर कहीं दूर तक सक्षम या तैयार नहीं दिखतीं. उन्होंने बताया कि 100-125 साल की अवधि में इस तरह की आशंका हमेशा बनी रहती है, लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या इतनी लंबी अवधि के सेस्मिक रिकार्ड की रेगुलर मॉनीटरिंग संभव नहीं हो पाई है. भूकंप आपदारोधी निर्माण तकनीक से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके नुकसान को प्रबंधन से ही घटाया जा सकता है.
डा. पचौरी का आकलन है कि उत्तराखंड के सुदूर पर्वतीय जिलों में पहले स्थानीय भवन सामग्री से ही भूकंपरोधी आवास बनाने का प्रचलन रहा है, लेकिन अब दूरदराज के कस्बों और गांव में भी सीमेंट, कंकरीट से मकान बनाने की भेड़चाल ने भूकंप से होने वाले नुकसान का जोखिम बढ़ा दिया है. राज्य के अधिकांश अस्पताल एवं स्कूल भवन आपदा प्रबंधन की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे.
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