अधिकारों की धज्जियां
कानून के सख्त प्रावधान महिलाओं की भलाई के लिए हैं, न कि उनके पतियों को दंडित करने, धमकाने या उन पर हावी होने या जबरन वसूली के लिए हैं।
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सुप्रीम कोर्ट का यह कहना है। हिन्दू विवाह को पवित्र प्रथा व परिवार की नींव बताते हुए पीठ ने कहा यह कोई व्यावसायिक समझौता नहीं है।
अदालत ने हाल के दिनों में वैवाहिक विवादों से जुड़ी ज्यादातर शिकायतों में दहेज उत्पीड़न, दुष्कर्म, अप्राकृतिक यौन संबंध व आपराधिक धमकी जैसे अपराधों को शामिल करने की बात भी की। साथ ही कहा यह ऐसी प्रथा है, जिसकी अदालत कई मौकों पर निंदा भी कर चुकी है। पीठ ने महिलाओं को सावधान रहने की बात करते करते हुए सलाह दी कि आपराधिक कानून के प्रावधान महिलाओं की सुरक्षा व सशक्तिकरण के लिए हैं, लेकिन कुछ महिलाएं इनका गलत उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करती हैं।
पीठ वैवाहिक विवाद से जुड़े मामले को निपटाते हुए कहा, भरण-पोषण कई कारकों पर निर्भर करेगा, न कि पति अपनी पूर्व पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता कितना दे या उसकी आय कितनी है। सुकून वाली बात यह भी है कि इस मामले में अदालत ने पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाए। पुलिस के साथ ही वकील भी अपराध की गंभीरता को बढ़ाने और मामले को भीषण दिखाने के लोभ में अनर्गल आरोप मढ़ने से नहीं चूकते। उक्त मामले में पति अतिसंपन्न की श्रेणी में है। इसलिए बीवी उसकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप गुजारा-भत्ता पाने का दावा कर रही है।
जैसा कि अभी मोटा गुजारा भत्ता मांगने व तलाक के लिए अदालती चक्कर काटने से आजिज आकर बंगलुरु के इंजीनियर की आत्महत्या के बाद लोग काफी गुस्से में हैं। स्थापित कानूनों की आड़ में विवाह जैसे पवित्र बंधन को वसूली का जरिया बनाने की मंशा वालों को सिर्फ हिदायतें ही नहीं दी जानी चाहिए। उनके सलाहकारों, वकीलों व पुलिस के प्रति भी अदालतों को सख्त रवैया अख्तियार करना होगा। गुजरा-भत्ता वसूली का जरिया नहीं है, यह विवाहिताओं को समझना चाहिए। उन्हें समय रहते अपने स्वाभिमान के साथ ही बमुश्किल मिले इन अधिकारों की धज्जियां उड़ाने से बाज आना चाहिए। वरना वास्तव में मजबूर/पीड़ित पत्नियों को न्याय मिलना मुश्किल हो सकता है।
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