जल दिवस : बचाएं तालाब और बावड़ियों को
अतीत की यादों में समाये तालाब और बावड़ियां (सीढ़ीदार कुएं) केवल जल-स्रेत भर नहीं थे, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक धरोहर के प्रतीक भी थे।
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ये जल संरचनाएं प्राचीन भारतीय समाज की जल प्रबंधन प्रणाली का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थीं, जो हमें हमारे पूर्वजों की बुद्धिमत्ता और पर्यावरण के प्रति उनके सम्मान की याद दिलाती हैं। तालाब गांवों और नगरों के जीवन का केंद्र हुआ करते थे।
वष्रा जल संचयन, कृषि सिंचाई, मवेशियों की प्यास बुझाने और सामाजिक मेलजोल के लिए इनका उपयोग किया जाता था। तालाबों के किनारे मंदिर, घाट और धर्मशालाएं बनाई जाती थीं, जहां लोग आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने आते थे। कई स्थानों पर ये तालाब त्योहारों और मेलों के केंद्र भी बनते थे। प्राचीन भारत में जल को संसाधन ही नहीं, बल्कि पूजनीय तत्व भी माना जाता था। इसलिए जल स्रेतों को संरक्षित करने के लिए वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया। राजाओं, रानियों, समाजसेवियों और मंदिर समितियों ने बड़े पैमाने पर तालाब और बावड़ियों का निर्माण कराया। इनका उद्देश्य जल संचयन के साथ-साथ सामाजिक समृद्धि और आध्यात्मिक शांति को बढ़ावा देना भी था। पुराने तालाबों के पास बैठकर अगर आप ध्यान दें तो आपको उनकी लहरों में इतिहास की हलचल महसूस होगी।
कभी ये गांव-शहरों की जान हुआ करते थे। गांवों में तालाब के किनारे बुजुर्ग किस्से सुनाते, बच्चे खेलते और महिलाएं पानी भरते हुए अपनी कहानियों की गहराइयों में खो जातीं। ये सिर्फ जल संरचनाएं नहीं थीं, बल्कि सामाजिक मेलजोल की सबसे अहम केंद्र थीं। बावड़ियों का निर्माण इस प्रकार किया जाता था कि गर्मी के मौसम में भी पानी ठंडा बना रहे। राजस्थान और गुजरात में बनी बावड़ियां आज भी अपनी जटिल नक्काशी, मेहराबों, स्तंभों और मूर्तियों के कारण आकषर्ण की केंद्र बनी हुई हैं।
बावड़ियां विशेष रूप से पश्चिमी और मध्य भारत में लोकप्रिय थीं। राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में अनेक प्राचीन बावड़ियां देखने को मिलती हैं। प्रसिद्ध बावड़ियों में चांद बावड़ी (अभनेरी, राजस्थान) और रानी की वाव (पाटण, गुजरात) अपनी अद्वितीय सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते जल संकट के इस दौर में हम इन पारंपरिक जल स्रेतों का पुनर्जीवन करें तो न केवल भूजल स्तर बढ़ाने में मदद मिलेगी, बल्कि बाढ़ जैसी समस्याएं कम करने में भी सहायता होगी। शहरीकरण और बढ़ती उपेक्षा के कारण कई तालाब और बावड़ियां सूख चुकी हैं, या अतिक्रमण की शिकार हो गई हैं। इन ऐतिहासिक स्थलों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है।
वर्तमान में कई शहर और गांव पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है क्योंकि वष्रा जल का संचयन सही तरीके से नहीं हो पा रहा है। यदि तालाबों और बावड़ियों को पुनर्जीवित किया जाए तो वे भूजल को फिर से भरने में मदद कर सकते हैं, जिससे नदियों और कुओं का जल स्तर संतुलित रहेगा। तालाब और बावड़ियां न केवल जल की स्रेत हैं, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में भी मदद करती हैं। ये पक्षियों, मछलियों और अन्य जलीय जीवों के प्राकृतिक आश्रय स्थल होती हैं। इन्हें पुनर्जीवित करके जैव-विविधता को संरक्षित किया जा सकता है। इसके लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी ताकि वे इनके संरक्षण की जिम्मेदारी लें। तालाब और बावड़ियां हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता और कुशल जल प्रबंधन प्रणाली की प्रमाण हैं।
यदि हम इन्हें पुनर्जीवित करें तो यह पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था-तीनों के लिए लाभकारी होगा। हमें अपने अतीत से सीख लेते हुए जल संरक्षण को अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इन अद्भुत संरचनाओं का लाभ उठा सकें। आज के समय में कई तालाब और बावड़ियां उपेक्षा के कारण सूख गई हैं या इनमें गंदगी भर गई है। शहरीकरण और जल संकट के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इन पारंपरिक जल स्रेतों का पुनरुद्धार आवश्यक हो गया है। कई जगहों पर लोग और संगठन इन संरचनाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। तालाब और बावड़ियां हमारे अतीत की वे धरोहर हैं, जो हमें जल संरक्षण और सामुदायिक जीवन की महत्त्वपूर्ण सीख देती हैं। इनका संरक्षण हमारी सांस्कृतिक विरासत को संजोने के साथ-साथ भविष्य में जल संकट से निपटने में भी सहायक हो सकता है।
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