दलबदल : जनादेश का सम्मान भी बस कहने भर के लिए रह गया
हाल के वर्षों में भारत में चुनी हुई सरकारों को दल बदल के माध्यम से गिरा देना और विपक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल के विधायकों को अपने साथ लाकर सत्ता को अस्थिर कर देने का एक चलन सा बन गया है।
जनादेश का सम्मान भी बस कहने भर के लिए रह गया |
भारत में जनादेश का कोई मतलब अब दिखाई नहीं देता। जनादेश का सम्मान भी बस कहने भर के लिए रह गया है। वर्तमान में राजनीति में आकांक्षाएं व महत्त्वाकांक्षाएं अपने चरम पर हैं और सत्ता में बने रहने की चाह दलबदल को तेजी से बढ़ा रही है। मतदाता भले ही किसी दल की विचारधारा से प्रभावित होकर किसी को वोट करे, लेकिन यह जरूरी नहीं की चयनित विधायक या सांसद उसी दल में रहे।
मतदाता जिस दल के लिए एकजुट होकर वोट करते हैं, वही दल दूसरे या तीसरे दल की तरफ हो जाते हैं। मतदाता का किसी राजनीतिक दल या नेता से व्यक्तिगत लगाव हो सकता है, किसी गठबंधन से भी मतदाता के सार्वजनिक हित जुड़े हो सकते हैं, लेकिन उस पार्टी या गठबंधन से चुना हुआ नेता उसे छोड़कर किसी और दल में जाता है तो इससे मतदाता के वोट का कोई मतलब नहीं रह जाता है। अधिकांशत: दलबदल केवल निजी स्वाथरे के कारण ही होता है। पद, पैसा या महत्त्वाकांक्षा के कारण ही दलबदल होता है, लेकिन इसमें हमारा यानी वोटर का हित कहां है? हम इसे समझना ही नहीं चाहते। दुखद है कि लोकतंत्र के इस बिगड़ते स्वरूप को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है।
पिछले दिनों महाराष्ट्र में जो हुआ उसने तो राजनीति में खरीद-फरोख्त की एक नई इबारत लिख दी है। विचारधारा की दृष्टि से बिल्कुल अलग गठजोड़ अब दिखाई देने लगे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति दलबदल की बड़ी प्रयोगशाला बन गई है। वहां पिछले कुछ महीनों के राजनीतिक घटनाक्रम बताते हैं कि नैतिकता और जन हित की पैरोकारी की दुहाई देने वाले नेता सत्ता हथियाने को कैसे रंग ढंग बदलते हैं। कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल बदल के कारण अल्पमत में आई, बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी विधायकों के इस्तीफे दिए जाने के कारण सरकारे अल्पमत में आई।
मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है। सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दल बदल में अब यही पैटर्न देखने को मिल रहा है, लेकिन निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं। आने वाले दिनों में भारत के 5 राज्यों में चुनाव होना है जहां अक्टूबर में आचार संहिता लागू हो जाएगी। अभी से राज्यों में दलबदल की आशंका दिखाई पड़ने लगी है। दो दल मिलकर चुनाव लड़ते हैं और जीतते हैं तो सरकार बनाते वक्त धुर विरोधी दल से मिल जाते हैं।
मतदाता के पास कोई अधिकार नहीं है कि वह इसका विरोध कर सके। यकीनन यह उसके मताधिकार का अपमान होता है। नेताओं को सत्ता में हिस्सा चाहिए इसीलिए दलबदल किया जाता है, हालांकि राजनीतिक दलों की दलील होती है कि जनता की खुशहाली के लिए राज्य के विकास के लिए फैसला लिया गया। एक वक्त था जब दलबदल को राजनीति में बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता था। दल बदलते तो थे मगर खुद को असली पार्टी बताने का दावा नहीं करते थे। इस दलबदल के खेल में सबसे अधिक फायदा छोटे दलों को हो रहा है, जो मोलभाव करने में सबसे अधिक फायदा उठा रहे हैं। महाराष्ट्र में पहले शिवसेना के एकनाथ शिंदे और अब राकंपा के अजित पवार इस राजनीति के अगुआ हैं।
वहीं राजनीति में अब नए तरह का प्रचलन देखने को मिल रहा है। ताकतवर दल दूसरे दलों के बीच दो फाड़ करने में माहिर हो रहे हैं। छोटे दलों में कई तरह के स्वार्थ लाभ और भय उन्हें दलबदल करने के लिए मजबूर बना रहे हैं। कहा जा रहा है कि सरकारी एजेंसियों के छापे के डर से ऐसा हो रहा है। सवाल उठता है कि आखिर नेता छापे से डरते क्यों हैं? अगर बात साफ-साफ है तो मीडिया या सीबीआई क्या बिगाड़ लेगी, लेकिन वे जानते हैं कि बात इतने भर की नहीं है। वे जानते हैं कि जांच एजेंसियों के पास इतने सारे पेच होते हैं कि उनमें उलझाया जा सकता है। कायदे से इनमें चुनाव आयोग को दखल देना चाहिए।
कुछ जानकारों का कहना है कि सर्वोच्च अदालत को भी हस्तक्षेप करना चाहिए। चुनाव सुधार के मामले में शीर्ष अदालत पहले भी अहम फैसले दे चुका है। अब दलबदल कानून पर भी कोर्ट को सख्त रु ख अपनाने की जरूरत है ताकि राजनीतिक पार्टयिां इसका दुरु पयोग न कर सके। देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म लगातार मुहिम चला रहा है। देश में अभी सांसद और विधायकों के दलबदल को रोकने वाला ही कानून लागू है बावजूद इसके देश में बड़ी संख्या में विधायक दलबदल करते नजर आ रहे हैं। नेताओं की विचारधारा सत्ता में बने रहने की है जिसके चलते राजनीति में शुचिता कम हो रही है। दलबदल के चलते लोकतांत्रिक मूल्यों में भारी गिरावट को देखा जा सकता है जो आने वाले समय में लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित होगा।
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