बिहार : आत्मघाती ’पराक्रम‘
हाल में बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ है। नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा और नये गठबंधन के विधायकों का समर्थन पत्र राज्यपाल सौंपा।
बिहार : आत्मघाती ’पराक्रम‘ |
जिस आरजेडी को जंगलराज का गठबंधन बताकर नीतीश कुमार एनडीए में शामिल हुए थे और सुशासन बाबू का तमगा त्याग कर उन्होंने फिर लालू प्रसाद यादव की पार्टी सहित कांग्रेस और वामपंथियों के साथ पुन: मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। बीते दो दशकों में उन्होंने आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की कमान को संभालने का पराक्रम किया है। नीतीश की राजनीति जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से उपजी। विनाथ प्रताप सिंह के आंदोलन में पुष्पित-पल्लवित हुई। अटल बिहारी वाजपेई के उदार भाव में वह फलदाई हुई और नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची।
भारत की राजनीति में कांग्रेस विरोधी गठबंधन की जड़ को संघ के विचार दशर्न ने सींचने का काम किया है। यह भारतीय जनसंघ ही थी जिसने पहली कांग्रेस विरोधी संविद सरकार को साकार कराया। इंदिरा गांधी के आपातकाल के विरु द्ध जनादेश खड़ा करने के लिए जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन कर दिया गया। 1990 के दशक में विनाथ प्रताप सिंह की सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया गया। पूरे देश में आज भी जो गैर-कांग्रेसी नेतृत्व खड़ा है, उसे अपने राजनीतिक जीवन में किसी न किसी मोड़ पर संघ या भारतीय जनता पार्टी का सहयोग, समर्थन और मार्गदशर्न अवश्य मिला।
सेक्युलर जमात सदैव एक काल्पनिक धारणा स्थापित करने का प्रयास करती रहती है कि भाजपा क्षेत्रीय दलों के रसूख का अपने विकास में सदुपयोग कर कालांतर में वहां अपना दबदबा बनाती है, और क्षेत्रीय दलों का खात्मा कर देती है। वर्तमान गैर-कांग्रेसी दलों की स्थिति और उनसे भाजपा के संबंधों पर दृष्टि डालकर इसका अध्ययन किया जा सकता है। हम प्रारंभ दक्षिण से करते हैं। तमिलनाडु में द्रमुक हो या अन्नाद्रमुक, दोनों से भाजपा का गठबंधन रहा है। भाजपा ने कभी न तो अन्नाद्रमुक का वोट बैंक अपने पाले में किया और न ही कहीं से भी द्रमुक को ही नुकसान पहुंचाया। द्रमुक और अन्नाद्रमुक, दोनों के संस्थापकों को कांग्रेस के सत्ता काल के संत्रास को झेलना पड़ा है।
तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति के के. चंद्रशेखर राव चाहे जितनी ताल ठोंक लें लेकिन इससे कौन इनकार कर सकता है कि उनकी शुरुआती राजनीतिक जमीन भाजपा के समर्थन से ही तैयार हुई। कर्नाटक में देवेगौड़ा की पार्टी को स्थापित करने में भी भाजपा का सहयोग और समर्थन रहा है। महाराष्ट्र में आज भी शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के विचारों को जीवंत रखने में भाजपा का ही अखंड सहयोग है। जो शरद पवार महाराष्ट्र के धुरंधर नेता कहलाते हैं, उन्हें जब भी कांग्रेस ने उपेक्षित अपमानित कर बाहर जाने के लिए मजबूर किया तब-तब उन्हें भाजपा ने ही प्रश्रय दिया। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने सत्ता का स्वाद भाजपा के सहयोग से ही चखा था। 2009 में बीजद ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया। बीते 13 वर्षो में एक प्रसंग कोई नहीं बता सकता जब भाजपा ने किसी प्रकार से भी नवीन पटनायक की राजनीति को क्षति पहुंचाई हो। असम में असम गण परिषद के साथ भाजपा का संबंध दशकों पुराना है।
पश्चिम बंगाल में आज ममता बनर्जी जिस भाजपा के विरोध में स्वर बुलंद करती हैं, यह वही भाजपा थी जब कम्युनिस्ट ममता दीदी पर प्राणलेवा हमले करते थे तब केंद्र में भाजपा का नेतृत्व ही उनकी रक्षा के लिए कवच बनता था। हरियाणा में देवीलाल रहे हों या बंसीलाल, इनके कांग्रेस-विरोधी अभियानों को सतत भाजपा का ही समर्थन रहा। आज भजन लाल का परिवार जिस तरह से भाजपा पर भरोसा करता है, वह भाजपा की गठबंधन धर्म के प्रति दायित्व बोध का जीवंत प्रमाण है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल को भाजपा ने सम्मान देने में क्या कमी रखी। उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती के तो प्राण ही भाजपा के नेतृत्व ने बचाए थे वरना समाजवादी पार्टी के गुंडों ने तो लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड में ही मायावती का काम तमाम कर दिया होता। पहली बार दलित महिला उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंची तो वह अटल बिहारी वाजपेई की दूरदर्शिता का परिणाम था।
अब बात करते हैं नीतीश कुमार की। लालू प्रसाद यादव ने तो उन्हें अपनी टीम से दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर कर दिया था। जब समता पार्टी बनाई गई थी तब नीतीश की हैसियत क्या थी? तब भी बिहार में भाजपा का अपना समर्थक वर्ग था। अपने नेताओं को पीछे रखकर भाजपा ने ही नीतीश को मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्रदान किया। बिहार में नीतीश कुमार का उदय भ्रष्टाचार के दलदल से हुआ और आज एक बार फिर वह उसी भ्रष्टाचारी दलदल में कूदकर खुद को धन्य पा रहे हैं। भाजपा ने अपने गठबंधन के सहयोगियों को उनके क्षेत्र और प्रांत में पुष्पित-पल्लवित करने में कर्ण सी मित्रता निभाई। इतिहास रहा है कि भाजपा ने खुली बांहों से अपने सहयोगियों को गले लगाया। भाजपा से बिछड़ने की पीड़ा का जो अनुभव आज वरिष्ठ अकाली कर रहे हैं, कल नीतीश के कल के संगी साथी भी करेंगे। विश्वास की देहरी लांघ कर जाने वाले नीतीश मुख्यमंत्री बने रहने के लिए जो निर्णय ले चुके हैं, वह निर्णय उन्हें आगे भी मुख्यमंत्री बनाए रख सकेगा, यह भविष्य बताएगा। तय है भाजपा तो मोदी के वैश्विक लोकप्रिय नेतृत्व के बूते आगे ही बढ़ेगी। लेकिन क्या नीतीश का अस्तित्व 2024 के आगे भी शेष बचेगा?
यही नीतीश थे जो 2010-17 तक मोदी के विरोध की धुरी बने पड़े थे किंतु जब लालू प्रसाद के लालों ने सरकार में रहकर उनकी दुर्गति की तब भ्रष्टाचार के विरोध में उनके शंखनाद का किसी ने साथ दिया तो वह राजनीतिक राग-द्वेष से ऊपर उठने वाले मोदी ही थे। 2020 के चुनाव में लालू एंड कंपनी ने नीतीश के लिए क्या कुछ नहीं कहा। मोदी का दिग्विजयी नेतृत्व नीतीश के समर्थन में नहीं उतरता तो नीतीश की हार तय थी। किंतु मौका पाते ही एक बार फिर नीतीश के मन में राष्ट्रीय राजनीति में कुलांचे भरने के अरमान जागे हैं, और इसी फेर में उन्हें भाजपा और उसके नेतृत्व द्वारा दिया जा रहा सम्मान पच नहीं पाया। तय है कि चार दिन की चांदनी के बाद नीतीश का आत्मघाती निर्णय उनका भाग्य लिखेगा और मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सौरमंडल का विस्तार होता जाएगा।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)
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