अमृत काल : स्वर्ण काल की यात्रा का रोडमैप

Last Updated 24 Aug 2022 12:23:23 PM IST

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किला देश के अनेक प्रधानमंत्रियों के संबोधन का साक्षी रहा है।


अमृत काल : स्वर्ण काल की यात्रा का रोडमैप

लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का संबोधन देश के नाम संदेश तो होता ही है, लेकिन महत्त्वपूर्ण रूप से उसमें उभरते-बनते-संवरते भारत-निर्माण की एक छवि भी दिखाई पड़ती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ऐसे अवसरों को राष्ट्र-निर्माण के लक्ष्यों को पाने के लिए प्रेरित करने के दिवस के रूप में स्थापित किया है। यही कारण है कि यह पहला ऐसा अवसर है, जिसमें किसी प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में किसी नई योजना की घोषणा न करते हुए अतीत की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए भविष्य के भारत-निर्माण का खाका खींचा है। उनके संबोधन का मर्म समझना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसमें राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक सहभागियों के लिए कुछ-न-कुछ लक्ष्य-मिश्रित संदेश अवश्य समाहित हैं।

अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने नागरिकों से पांच प्रणलेकर उन्हें समयबद्ध रूप में पूर्ण करने का आह्वान किया। उन्होंने अगले पच्चीस वर्ष हेतु इन पांच प्रणों के माध्यम से अपनी एक संकल्पित रूपरेखा प्रस्तुत की। ये पांच प्रणमूलत: प्रधानमंत्री द्वारा कल्पित सौ वर्ष के स्वर्णकालिक भारत की एक तस्वीर प्रस्तुत करने के साथ वर्तमान भारत की चुनौतियों के खिलाफ बिगुल बजाते हुए जनमत-निर्माण का संकल्प भी प्रतीत होते हैं। अगले पच्चीस वर्षो में इन प्रणको साकार करने में यदि हम समर्थ हुए तो आजादी के सौ वर्ष पूर्ण होने की दहलीज पर जब हम खड़े होंगे, तब हमारे सामने वह स्वर्णिम भारत होगा जहां न भाई-भतीजावाद होगा और न उससे उपजा भ्रष्टाचार होगा, जहां महिलाओं का सम्मान होगा और गुलामी की मानसिकता से मुक्त होकर समाज के अंतिम व्यक्ति का जीवन भी खुशहाल होगा। इसलिए प्रधानमंत्री ने अगले पच्चीस वर्ष के लिए जो देश का लक्ष्य तय किया है, वह मूलत: अमृतकाल से स्वर्णकाल की यात्रा का रोडमैप है। प्रधानमंत्री ने ‘अपनी विरासत पर गर्व करने’ के जिस तीसरे प्रणकी चर्चा की वह कई मायनों में भारतीयता के जागरण बोध से जुड़ा अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रणहै। यह न केवल भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरूरत को रेखांकित करता है बल्कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रासंगिकता को भी मुखर रूप में अभिव्यक्त करता है।

सभ्यता की उत्पत्ति का प्रश्न हो या आयुर्वेद, शल्य चिकित्सा और रसायन क्षेत्र उपलब्धियों की चर्चा हो; गणित क्षेत्र के आविष्कारों की बात हो अथवा संपूर्ण विश्व को वसुधैव-कुटुंबकम का मूल मंत्र देते हुए अपने अमूल्य ज्ञान-ग्रंथों से आलोकित करने का संदर्भ हो; भारत ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन एवं शोध के सभी क्षेत्रों में विश्व की अग्रणी सभ्यता रहा है। परंतु मूल संकट तो यह है कि आज हमें अपनी विरासत की सही जानकारी ही नहीं है या जो भी जानकारी है वह तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत की गई है। ऐसे में मूल विरासत की सही जानकारी का अभाव हमारे भारतबोध में एक बड़ी बाधा बनता है।

प्रधानमंत्री का यह कहना कि हम अपनी जमीन से जुड़ें, वस्तुत:अपनी संस्कृति और अपने नायकों को जानने तथा उनको उचित स्थान देने की ही एक कोशिश है। जमीन से जुड़कर ही हमें अपनी निजी उपलब्धियों का ज्ञान होगा और अपने विपुल संचित ज्ञान-कोश के आधार पर ही हम विश्व का पुन: नेतृत्व करने में सक्षम बन सकेंगे। इसलिए भारत की उस विरासत को जानना हम भारतीयों के लिए अपरिहार्य है, जिसने प्राचीनकाल में इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने का गौरव दिलाया था। आजादी की लंबी-पीड़ादायक लड़ाई लड़ने वाले गुमनाम, लेकिन वास्तविक सेनानियों के साथ हमें उन महापुरु षों को भी याद रखना होगा जिनके प्रयत्नों से ही कभी भारत का स्वर्णकाल साकार हुआ था। इसी कारण प्रधानमंत्री अपने संबोधन में वीर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, नानाजी देशमुख समेत भारतीय इतिहास के अनेक महत्त्वपूर्ण सेनानियों को याद करते हुए आधुनिक भारत के निर्माण का प्रणदोहराते हैं।

भारतीय विरासत का एक उत्कृष्ट पन्ना यह भी है कि हमने कभी हार नहीं मानी है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का इतिहास बहुत पुरातन है। यह पचहत्तर वर्ष की यात्रा भी उसी का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इतिहास की गौरवशाली यात्रा में हमने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। कई बार ऐसे मोड़ भी आए जब हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा, लेकिन इतिहास और परंपरा के हर काल में भारत ने अपने ऊपर मंडराती गहरी काली छायाओं से न केवल निर्णायक लड़ाई लड़ी बल्कि अपनी सर्व-समावेशी सर्वश्रेष्ठता भी स्थापित की। भारत की मिट्टी की असाधारण सामथ्र्य ने हमारी विविधता को प्राण वायु बनाया और हर क्षण ‘भारत प्रथम’ की भावना को जीवित रखा।

हर भाषा के सम्मान का प्रधानमंत्री का दृष्टिकोण ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के सपने को साकार करने की दिशा में मील का पत्थर है, लेकिन यह रोडमैप केवल देश की सरकार या सरकारी संस्थाओं के भरोसे पूर्ण नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें जनभागीदारी न सुनिश्चित हो। आजादी के वास्तविक मानी तक पहुंचने के दिशा में प्रधानमंत्री की इस सार्थक कर्तव्य-बोध पहल के बाद अब हम सजग नागरिकों के अपने-अपने महत्त्वपूर्ण नागरिक-कर्तव्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी बनती है। ऐसा करके ही हम आजादी के अमृतकाल और स्वर्णकाल को सार्थक रूप दे पाएंगे।

डॉ. धर्मेंद्र प्रताप सिंह


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