सरकारी परियोजनाएं : लापरवाही पर तय हो जिम्मेवारी
मध्य प्रदेश के धार जिले की धरमपुरी तहसील के ग्राम कोठीदा भारु डपुरा में करीब 304 करोड़ रु पये की लागत से बन रहे निर्माणाधीन बांध में पहली ही बारिश में रक्षाबंधन के दिन रिसाव शुरू हो गया।
सरकारी परियोजनाएं : लापरवाही पर तय हो जिम्मेवारी |
कारम मध्यम सिंचाई परियोजना के बांध के दाएं हिस्से में 500-530 के मध्य डाउन स्ट्रीम की मिट्टी फिसलने से बांध को खतरा पैदा हुआ था। बांध की लंबाई 590 मीटर और ऊंचाई 52 मीटर है। धार जिले के 12 और खरगोन जिले के छह गांवों को खाली करवाने की घोषणा प्रशासन ने कर दी। पोक्लैंड मशीनों से मिट्टी काट कर पानी निकलने का मार्ग बनाया गया। सो, बांध फूटने से बड़ी तबाही तो नहीं आई लेकिन पानी की निकासी ने हजारों हेक्टेयर खेत चौपट कर दिए।
बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे की सड़क अपने उद्घाटन के अगले ही दिन पहली बरसात में ही कई जगह बुरी तरह टूट गई। मामला सियासती आरोप-प्रत्यारोप में फंस गया। महज ध्वस्त हिस्से पर मरम्मत हुई और बात आई गई हो गई। 296 किमी. लंबी इस सड़क का खर्च आया था 14,800 करोड़ रुपये यानी प्रति किलोमीटर 50 करोड़। यदि एक गांव में एक किमी. का खर्चा लगा दें तो वह यूरोप के किसी शहर सा लक-दक हो जाए। दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे को ही लें। इसे देश का सबसे चौड़ा और अत्याधुनिक मार्ग कहा गया।
1999 में इसकी घोषणा संसद में हुई और शिलान्यास 2015 में। यदि दिल्ली निजामुद्दीन से यूपी गेट और उधर मेरठ के हिस्से को जोड़ लें तो यह सड़क कुल 82 किमी. की हुई। छह से 14 लेन की इस सड़क की लागत आई 8,346 करोड़ यानी प्रति किमी. 101 करोड़ से भी ज्यादा। 20 अगस्त, 22 को थोड़ी सी बरसात हुई और परतापुर के पास मिट्टी का कटाव हुआ और सड़क धंसने लगी। दिल्ली के प्रगति मैदान में बनी सुरंग-सड़क को देश के वास्तु का उदाहरण कहा जा रहा है, इसकी लागत कोई 923 करोड़ है, और शुरू होने के दस दिन बाद ही इसके निकासी पर जाम लगने लगा है, बरसात का पानी भर रहा है।
मप्र में कलियासोत नदी पर एक साल पहले बना करीब 529 करोड़ की लागत का पुल गिर गया है, पुल भोपाल से मंडीदीप मार्ग पर 11 मील के समीप स्थित है। बिहार में तो गत पांच साल में कम से कम दस पुल बनते ही बिखर गए। सरकारी भवन खासकर स्कूल और अस्पताल भवनों की गुणवत्ता पर तो सवाल उठते ही रहते हैं। इन पर बेशुमार धन व्यय हो रहा है, तो निर्माण गुणवता पर लापरवाही क्यों?
मप्र के धार में जो बांध पूरा होने से पहले ही फूट गया, उसका निर्माण एक ऐसी कंपनी कर रही थी जिसे राज्य शासन ने पांच साल पहले ब्लैक लिस्ट किया था। होता यह है कि ठेका तो किसी अन्य फर्म के नाम होता है। इस तरह की कंपनियां ठेकेदार से ‘पेटी-ठेका’ ले लेती हैं, और काम करती हैं। यह भी संभव है कि ठेका जिस कंपनी को मिला है, वह प्रतिबंधित कंपनी की ही शेल कंपनी हो। परंतु सारा जिम्मा ठेकेदार पर तो डाला नहीं जा सकता। हर परियोजना का अवलोकन, निरीक्षण, गुणवत्ता और मानक सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी तो सरकारी इंजीनियर की होती है। उसी के सत्यापन से सरकारी खाते से बजट आवंटित होता है।
सच है कि कोविड के चलते कई निर्माण परियोजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य से पीछे हैं, और एक तो उनकी पूंजी फंसी है, दूसरा समय बढ़ने ने लागत बढ़ गई है, तीसरा उन्हें जल्द पूरा करने का सरकारी दबाव है। कई जगह तो काम की स्थिति देखे बगैर आनन फानन में आधे-अधूरे काम का लोकार्पण करवा लिया गया। यह मेरठ एक्सप्रेसवे में भी हुआ और अखिलेश यादव के समय आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे पर भी और उस समय भी सड़क ढह गई थी। दिल्ली में प्रगति मैदान परियोजना अभी भी आधी-अधूरी है।
निर्माण कार्य खासकर सड़क पर प्राय: आने वाले दस साल का ख्याल ही नहीं रखा जा रहा है। इसलिए कोई भी फ्लाईओवर बनने के कुछ दिनों बाद ही जाम का सबब बन जाता है। दिल्ली का पहला एलिवेटेड रोड बारापुला इसका उदहारण है। इसे जैसे ही सीजीओ कॉम्पलेक्स के ट्रैफिक से जोड़ा गया वहां जाम स्थायी हो गया। जब यह पुल मयूर विहार से भी जुड़ जाएगा तो यातायात रेंगेगा। प्रगति मैदान की सुरंग सड़कों पर अभी ही जाम रहता है। दो साल में यह परियोजना फ्लॉप होगी।
इंटरनेशनल ट्रेड फेयर या बुक फेयर के समय तो सुरंग दमघोटू जाम का मार्ग बनेगी। आखिर, यह लापरवाही है या तकनीकी अज्ञानता? असल सवाल है कि ऐसे कार्यों पर कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं होती? मेरठ एक्सप्रेसवे पर जल भराव मामले में जांच नहीं बैठी, बारापुला या प्रगति मैदान सुरंग रोड की त्रुटिपूर्ण डिजाइन के लिए कोई चार्जशीट नहीं किया गया, धार के बांध के मामले में किसी भी इंजीनियर के निलंबन की खबर नहीं आई। यह समय किसी भी परियोजना में कोताही के प्रति ‘जीरो टोलरेंस’ का होना चाहिए। लापरवाही मूलभूत ढांचे के लिए हंता होती है, और अफसरों को जिम्मेदार बनाना ही होगा।
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