मीडिया : भावनात्मक राजनीति और मीडिया
मीडिया पहले नेता बनाता है, फिर उनकी हीरोगीरी को उतारता है, लेकिन पिछले दिनों हमने कुछ ऐसे भी हीरो देखे हैं जो बीच में उखड़ कर फिर से बने हैं।
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कोई कह सकता है कि मीडिया तो वही दिखाता है जो ‘घटित’ होता है। हीरो या हीरोइन बनाने की जगह वह उनकी ‘खबर’ भर देता है, लेकिन मीडिया कर्म इतना मासूम नहीं है, और न ही जनता इतनी मासूम रह गई है। वह मीडिया में अपनी खबर बनाने के सारे टोटके जानती है। कभी प्यार से कभी घुड़की से वह मीडिया में अपने को हीरो बनाती है। मीडिया की भी उस्ताद है। मीडिया का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना जानती है, और वैसा कर भी रही है।
जानती है कि कमजोरों की भीड़, उनकी शिकायतें, नाराजी, विरोध, क्रोध, उत्तेजना, गरम नारे मीडिया के लिए बड़ी खबर होते हैं क्योंकि वे ही दर्शक जनता के मन को छूती हैं। अन्याय, कमजोर पर अत्याचार, दमन और किसी निरीह की मृत्यु, किसी बड़े नेता का रोना, नाटक लगते हुए भी, भावनाओं को छूने वाला हो सकता है! वह जानती है जो खबर भावनाओं को छूती है, वही आंदोलित करती है, और वही सबसे अच्छा ‘संप्रेषण’ करती है। और मीडिया भी जानता है कि जनता उससे क्या चाहती है? ऊपर से तो मीडिया ‘खबर’ बेचता दिखता है, लेकिन ध्यान से देखें तो खबरों के जरिए हमारी भावनाओं को उभार कर हमें बेचता है। अपने मीडिया का मुहावरा ‘इमोटिव’ यानी ‘भाव प्रधान’ है। इसीलिए मीडिया की हर खबर हमारे लिए ‘अच्छी’ या ‘बुरी’ होती है, ‘मानवीय’ या ‘अमानवीय’ होती है। वह ‘सच’ है या ‘फेक’ है, जनता इसकी चिंता बहुत नहीं करती। मीडिया की भाषा इसीलिए हमें या तो किसी का ‘हमदर्द’ बनाती है, या ‘बेदर्द’। मीडिया की ‘संप्रेषण’ की प्रक्रिया बहुत कुछ ‘रस सिद्धांत’ के ‘साधारणीकरण’ की प्रक्रिया जैसी है। खबर बनाने वाला चेहरा हमारे भाव का ‘आलंबन’ यानी ‘कारण’ होता है। वह हंसता है तो हम हंसते हैं। रोता है तो हममें हमदर्दी पैदा होती है।
इस नजरिए से किसान आंदोलन के अब तक के ‘मीडिया संप्रेषण’ को देखें : पहले किसानों की शिकायतें खबर बनीं। फिर उनकी मांगें खबर बनीं। फिर उनके नेता खबर बने। फिर सरकार से वार्ताएं खबरें बनीं। फिर सरकार झुकती नजर आई। जिस अनुपात में सरकार झुकती नजर आई, उसी अनुपात में किसान जिद्दी होते नजर आए। सरकार की छवि ‘उदार’ (कमजोर) की बनी जबकि किसानों की छवि जिद्दी की बनी! यहीं से किसानों के प्रति हमदर्दी कम होती दिखी। फिर, छब्बीस जनवरी की हिंसक ट्रैक्टर परेड और फिर लाल किले पर कुछ किसान युवकों द्वारा लालकिले पर खास धार्मिक झंडा फहराने ने किसानों के प्रति शेष जनता की हमदर्दी को जीरो कर दिया। गाजीपुर से तंबू उखड़ने लगे। इसे देख टिकैत ने कह दिया कि हम आंदोलन खत्म कर देंगे। इसी बिंदु पर टिकैत की भावनाओं ने पलटी मारी। कल तक की परमवीर की छवि कि हम कानून वापस कराके ही जाएंगे और अब ‘बड़े बेआबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले’ वाली स्थिति! अपनी वीर छवि को देख टिकैत बच्चे की तरह बिलख कर रोने लगे; भले वे कहें कि भाजपा ने हमें मारने की धमकी दी। इसी से यह ‘क्षोभ’ उमड़ा। कुछ देर रोने के बाद वे फिर से फैल गए कि फांसी लगा लेंगे लेकिन नहीं हटेंगे।
उन्होंने देखा कि उनके आंसुओं ने उनके प्रति ‘हमदर्दी’ और बढ़ा दी! बढ़ती हमदर्दी देख फिर से जोश में आ गए। उनके गांव में पंचायत हुई और उनका गांव उमड़ पड़ा। उखड़ते तंबू फिर जम गए। अगले रोज मीडिया उनको सबसे बड़े किसान नेता की तरह दिखाने लगा। उनके बुझे चेहरे पर चमक लौट आई। उनके रुदन के सीन ने आंदोलन के प्रति कम होती हमदर्दी फिर से बढ़ा दी। टिकैत टिकाऊ नजर आने लगे और उनको हटाने के लिए भारी पुलिस बंदोबस्त करने वाली दो-दो सरकारें निकम्मी नजर आई। यह टिकैत का वैसा ही ‘क्षण’ है जैसा अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्ज मेटर्स’ का क्षण बना था, जिसने ‘ऑनलाइन’ आंदोलन का और बाद में हिंसक आंदोलन का रूप ले लिया और ट्रंप को हिला दिया। अपने यहां भी एक ऑनलाइन आंदोलन चलाया जा रहा है जिसका नाम है ‘इंडियन लाइफ मैटर्स’। कल को कोई चला सकता है ‘किसान लाइफ मैटर्स’! ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर्स’ जैसे आंदोलन बताते हैं कि हम इन दिनों मीडिया निर्मित भावनात्मक आंदोलनों में रहते हैं। पहले वे जमीनी होते हैं, फिर वे मीडिया में होते हैं, फिर ‘ऑनलाइन’ होते हैं और अपनी जमीनी हकीकत से कटकर ‘आभासी’ बन जाते हैं। इनकी जान इनकी ‘भावनात्मक राजनीति’ में है। अड़ियल सत्ताएं इनको पुराने तरीके के आंदोलन की तरह देखती हैं, इसीलिए इनसे नहीं निपट पातीं।
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