पं. विद्यानिवास मिश्र : लोक के व्यंजना व्यक्तित्व

Last Updated 12 Jan 2021 12:17:49 AM IST

पंडित विद्यानिवास मिश्र रसपुरुष थे, ऐसे रसपुरुष जिन्होंने अपने लोक की भूमि से रस ग्रहण किया था और फिर इसी रस को अपने कृतित्व के माधुर्य में घोलकर उसे लोक के ही बीच बड़े अकिंचन भाव से बांट दिया था।


पं. विद्यानिवास मिश्र : लोक के व्यंजना व्यक्तित्व

इसलिए मुझे सदैव लगता रहा है कि वे वास्तव में रसपुरुष थे। लोकपुरुष तो बहुत होते हैं लेकिन रसपुरुष अपवाद।
लोक उनके लिए केवल अवधारणा नहीं था, न मनुष्यों का समूह था उनके लिए लोक एक सतत अनुभव था और वही उनका कर्मक्षेत्र था। लोक की परम्परा उनके लिए ऐसी आदम परम्परा नहीं थी, जिसकी गति थम गई हो। वह उनके लिए नैरन्तर्य का प्रतिमान थी और जीवन का अंग। लोक परम्परा की सामथ्र्य को उन्होंने उतने ही समर्थ ढंग से व्यक्त किया जितनी समर्थ यह परम्परा है। इस परम्परा की परिधि में वे केवल मनुष्य समाज को ही नहीं मानते थे अपितु उसके अन्तर्गत वे प्रकृति, व्यवहार और भाषा को भी पाते थे। पंडित जी का लोक समग्र का लोक है। इस लोक को वे कला से, धर्म से, साहित्य की आत्मा और नीति से जोड़कर देखते हैं। वह ऐसा लोक है जो सर्वस्वीकृत है और इसीलिए उसका उत्स हमारी वाचिक परम्परा में है। इस वाचिक परम्परा के उद्घोषक हैं लोकगीत जिन पर वे आजीवन रीझते रहे।

सैकड़ो लोकगीत उन्हें कंठस्थ थे। वे जहां भी जाते वहां के लोकगीतों के बारे में उनकी जिज्ञासा होती। निमाड़ में, मालवा में सोहर कैसे होते हैं? विवाह के अवसर पर कौन-कौन से लोकगीत गाए जाते हैं, इसे जानने की उत्कंठा, उनकी पहली उत्कंठा रहती थी। उनके आदेश से निमाड़ी और मालवी लोकगीतों पर मैंने एक छोटी कृति तैयार की। अनेक लोक भाषाओं के लोकगीत उन्हें याद थे और जब मन करता तो वे उसे सुनाते थे, विशेष रूप से राम वनवास के लोकगीत। ऐसी जाने कितनी स्मृतियां हैं, लेकिन मैं समझ यही पाया कि वे पूरी तरह लोक से उदभूत रसपुरुष ही हैं। पंडितजी ने लोक को न तो कहीं शास्त्र के रूप में समझा और न ही उसकी शास्त्रीय व्याख्या की। उनका मानना था कि इसी लोक के भीतर से होकर लोकोत्तर की राह जाती है। भगवान राम से लेकर श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, और भगवान महावीर से लेकर परमहंस रामकृष्ण, रमण महषर्ि और मां आनंदमयी ये सभी महान विभूतियां लोकोत्तर हैं और इसलिए हैं कि वे परम लौकिक हैं, वे संपूर्ण लोकमय हैं। लोक के बारे में उन्होंने बहुत लिखा है, और उस लेखन के आधार पर कुछ लोग कह सकते हैं कि वह शास्त्र है या शास्त्रीय है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्होंने यह सिद्ध किया है कि शास्त्र, लोक की ही देन है। बिना लोक के, शास्त्र की कोई पहचान नहीं है। लोक और शास्त्र यद्यपि दोनों पृथक-पृथक हैं, लेकिन भारतीय परम्परा में, चिन्तन में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। लोक की पहचान के बारे में उन्होंने इसी दृष्टि से विचार किया। उनका कहना था कि लोक, फोक का पर्याय नहीं है, उसे लोक का पर्याय बनाकर दयनीय बना दिया गया है। यह पश्चिम के फोक से बहुत भिन्न है। इस सच्ची भारतीय अवधारणा को यदि वे उदाहरणों के माध्यम से समझा देते हैं तो यह समझाना कदापि शास्त्रीय नहीं है और न ही ऐसा लेखन कहीं अपने आप में शास्त्र है। उनके लोक केन्द्रित अनेक आलेख हैं, निबन्ध हैं, वार्ताए हैं, व्याख्यान हैं लेकिन उन सबका स्वर एक सा ही है।
पंडितजी ने लोक साहित्य की मर्यादा को भी रेखांकित किया है और उनका  निष्कर्ष है कि लोक साहित्य की रचना लोक करता है इसलिए वह लोक के लिए ही है तथा उसकी भाषा भी वही होनी चाहिए जो लोक की भाषा है। वे लोक विज्ञान के बारे में भी विचार करते हैं और लोकवार्ता के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करते हैं। लोक के बिम्ब विधानों को वे विभिन्न लोकगीतों के माध्यम से समझाते हैं। उनके निबन्धों में बार-बार लोक के संदर्भ में राम से जुड़े हुए लोकगीत आते हैं। जैसा कि मैंने सबसे पहले कहा कि लोकपुरुष तो बहुत होते हैं, लेकिन रसपुरुष अपवाद, इसलिए कि रसपुरुष वह होता है जो केवल लोक के स्वरूप का ही प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि लोक के रस को अपने में समोकर उसे लोक के बीच ही बांट देता है, और इस तरह लोक की अमिधा को व्यंजना में बदल देता है। पंडितजी लोक के रस को अपने आप में आत्मसात कर उसे समूचे लोक में बांट देने वाले अपवाद व्यक्तित्व हैं। उन्होंने लोक की रूढिगत परिभाषा जो अमिधा के रूप में, रूढ़िगत रूप से जानी जाती रही उस अमिधा में समाई व्यंजना से हमारा साक्षात्कार करा दिया। इन अथरे में पंडितजी ऐसे रस व्यक्तित्व हैं जिनमें लोक की व्यंजना समायी है और यह व्यंजना हमें यही शात संदेश दे रही है कि लोक व्यष्टि नहीं होता, समष्टि होता है।

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय


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