सामयिक : वाशिंगटन से सबक
हारे हुए अहमक राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के समर्थकों ने अमरीकी संसद भवन ‘कैपिटौल’ पर जो गुंडागर्दी की उसे देख कर सारी दुनिया दंग रह गई।
सामयिक : वाशिंगटन से सबक |
हर दूसरे देश को लोकतंत्र का सबक सिखाने की आत्मघोषित ‘नैतिक जिम्मेदारी’ का दावा करने वाले दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का यह विद्रूप चेहरा अमरीकी नागरिकों को ही नहीं खुद ट्रम्प के चहेते उप-राष्ट्रपति माइकल पेंस, मंत्रियों व सांसदों को भी नागवार गुजरा। अमेरिकी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनावी नतीजों पर संसद के दोनों सदनों को स्वीकृति की मुहर लगानी होती है, जिसके लिए वे गत बुधवार को कैपिटौल में जमा हुए थे। हार से बौखलाए ट्रम्प ने अपने उप-राष्ट्रपति, मंत्रियों व सांसदों पर भारी दबाव डाला कि वे इन नतीजों को अस्वीकार कर लौटा दें।
गनीमत है कि इन लोगों ने अपने नेता और अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति के इस गैर-संविधानिक आदेश को मानने से मना कर दिया और डेमोक्रेटिक पार्टी के जीते हुए उम्मीदवार जो बाइडेन की जीत पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। उप-राष्ट्रपति ने तो ट्रम्प से साफ-साफ कह दिया कि वे अमरीका के उप-राष्ट्रपति हैं ट्रम्प के नहीं। इसलिए वे संविधान की अपनी शपथ के अनुसार उसकी रक्षा का काम करेंगे, उसके विरुद्ध नहीं। ट्रम्प सरकार की शिक्षा मंत्री निक्की हेली ने सत्ता हस्तांतरण से 12 दिन पहले मंत्रीपद से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि जो कुछ हुआ वो शर्मनाक है। सारे देश के विद्यार्थियों ने भीड़ के तांडव को देखा, जिसका उनके मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा होगा। मैं इस सब से व्यथित हो कर अपने पद से इस्तीफा दे रही हूं।
रिपब्लिकन पार्टी के इन नेताओं का हृदय परिवर्तन अमेरिकी जनता और लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण हैं। अगर यह लोग चुनाव नतीजे आने के बाद ही जाग जाते और ट्रम्प को वो सब हरकतें करने से रोक देते जो इस सिरफिरे राष्ट्रपति ने पिछले दो महीने में की हैं तो रिपब्लिकन पार्टी की ऐसी जग-हंसाई नहीं होती। अब जब पानी सिर से ऊपर गुजर गया तो इस घबराहट में इन सब ने डोनाल्ड ट्रम्प से पल्ला झाड़ा क्योंकि इन्हें भविष्य में अपने राजनैतिक कॅरियर पर खतरा नजर आ गया। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’। दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने कैपिटौल पर हुए हमले के लिए ट्रम्प के समर्थकों की कड़े शब्दों में आलोचना की है। अब भविष्य में ट्रम्प के साथ जो भी खड़ा होगा वो अपनी कब्र खुद खोदेगा। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी ट्वीट करके अमेरिका में सत्ता हस्तांतरण को शांतिपूर्ण ढंग से किए जाने की अपील करनी पड़ी। जाहिर है मोदी जी को इस बात पर पछतावा हुआ होगा कि उन्होंने अमेरिका में जा कर ऐसे अहमक आदमी के लिए चुनाव प्रचार किया। उनका दिया नारा, ‘अबकि बार ट्रम्प सरकार’ उल्टा पड़ गया। मोदी जी ने शायद अमेरिका और भारत के सम्बन्धों को और प्रगाढ़ बनाने के उद्देश्य से ऐसा किया होगा। पर जब उन्होंने ये नारा दिया था तो न सिर्फ अमेरिकी समाज और मीडिया बल्कि भारतीय समाज पर भी इस पर आश्चर्य व्यक्त किया गया था।
इससे पहले भारत के या किसी अन्य देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने दूसरे देश में जाकर उसके राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार कभी नहीं किया था। चूंकि अब अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है तो ये शंका व्यक्त करना निमरूल न होगा कि मोदी जी के इस कदम से अमेरिका में सत्तरूढ़ होने जा रही पार्टी में मोदी सरकार के विरुद्ध तल्खी हो। हालांकि अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर जो बाइडेन की नई सरकार इस बात की उपेक्षा कर सकती है। क्योंकि अमेरिका के लिए अपने व्यावसायिक हित पहले होते हैं। उधर बाइडेन ने यह साफ कह दिया है कि वे वैचारिक, धार्मिक या सामाजिक दृष्टि से बंटे हुए अमेरिकी समाज को जोड़ने का काम करेंगे क्योंकि वे हर अमेरिकी के राष्ट्रपति हैं न कि केवल उनके जिन्होंने उन्हें वोट दिया। कैपिटोल की घटना से विचलित होकर मैंने भी एक ट्वीट किया था, जिसे नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, शरद पवार, सुखविंदर सिंह बादल, अखिलेश यादव, मायावती, जयंत चौधरी, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार व शरद यादव आदि को भी टैग किया, जिसमें मैंने इन सभी राजनैतिक दलों के नेताओं को वाशिंगगटन की इस निंदनीय घटना से सबक सीखने की सलाह दी।
ये कहते हुए कि किसी भी मुद्दे पर अपने चहेतों को इस तरह उकसा कर भीड़ का हिंसक हमला करवाना बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है, जिससे न केवल लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा बल्कि गुंडे और मवाली सत्ता पर काबिज हो जाएंगे। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को इस खतरनाक प्रवृत्ति को पनपने से पहले कुचलने का काम करना चाहिए। वरना भविष्य में स्थितियां उनके हाथ में नहीं रहेंगी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरना करना या कानून व्यवस्था को भंग किए बिना नारे, पोस्टर लगाना या हड़ताल करना लोकतंत्र का स्वीकृत अंग है, जिसे पुलिस के डंडे से कुचलना अमानवीय और लोकतंत्र विरोधी होता है। हां विरोध प्रदर्शन में हिंसा या तोड़फोड़ बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। गनीमत है आजादी से आजतक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता का परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से होता आया है और होता रहना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा। जो भारत जैसी भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक विषमता वाले देश के लिए बहुत जरूरी है।
दो दशक पहले, अपने इसी कलम में मैंने लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहकर केंद्रीय सत्ता का समर्थन किया था। क्योंकि तब मुझे लगता था कि बहुत सारे विवादास्पद विषयों का कड़े नेतृत्व से ही समाधान हो सकता है, लोकतंत्र से नहीं। पर पिछले 20 वर्षो के अनुभव के बाद केंद्रीय नेतृत्व के खतरे समझ में आने लगे हैं। शासक की जवाबदेही, विपक्ष के साथ लगातार संवाद और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को अगर निष्ठा से अपनाया जाए तो लोकतंत्र ही समाज का हित कर सकता है, अधिनायकवाद नहीं। डोनाल्ड ट्रम्प के अधिनायकवादी रवैए से इस मान्यता की पुन: पुष्टि हुई है। वाशिंगगटन में जो कुछ हुआ, वो किसी भी देश में कभी न हो इसके लिए हर राजनैतिक दल को सजग और सचेत रहना चाहिए।
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