स्वामी विवेकानंद : अतीत व वर्तमान के संयोजक
आदिकाल से ही भारतवर्ष महान विभूतियों को पैदा करता रहा है, जिन्होंने अपने विचारों व जीवन-दर्शन से सम्पूर्ण मानव का मार्गदर्शन तथा अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता से मानवीय सभ्यता का उन्नयन किया है।
स्वामी विवेकानंद : अतीत व वर्तमान के संयोजक |
स्वामी विवेकानन्द इसी ज्ञान सम्पदा के स्तम्भ के रूप में पल्लवित हैं, जिनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान अनन्त काल तक मानव मात्र के लिए धरोहर के रूप में संचित रहेगा। सहस्त्र वर्षो से आक्रमण झेलते भारतवर्ष वैचारिक रूप से भी परतंत्र होने के कगार पर था, जिससे उबरने के लिए बंगाल-असम से गुजरात, कश्मीर से कन्याकुमारी तक पैदा हुए अनगिनत विभूतियों में स्वामीजी अग्रणी रहे हैं, जिनके विचार आदर्शात्मक नहीं अपितु व्यावहारिक जीवन को परिष्कृत करने का साधन बना।
सितम्बर 1893 के ‘शिकागो विधर्म महापरिषद’ में उनके उद्बोधन में सर्वप्रथम भाई-बहन शब्द का आना, वस्तुत: हमारी सहस्त्र वर्षो की भारतीय परम्परा को ही परिलक्ष्यित करती है। उनका सम्पूर्ण जीवन मानों भारतीय सांस्कृतिक-वाड्गमय का मूर्त रूप रहा, जो आज भी उसी जीवंतता व सामथ्र्य से विद्यमान है। उन्होेंने भारतवर्ष को मात्र राष्ट्र नहीं मानकर ऐसे पवित्र स्थल के रूप में देखा जो अपने आध्यात्मिक चिन्तन की उच्चतम स्थिति को प्राप्त संस्कृति का वाहक व मित्र-शत्रु से परे विभिन्न मतावलम्बियों की शरणस्थली बना। उन्होंने भारतीय जनमानस को पहचाना तथा उन्हें उचित मार्ग पर लाने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी कहा कि भारत को जानने के लिए स्वामी विवेकानन्द को जानिए। बंगाली सभ्यता के प्रखर वक्ता नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के भावुक मन पर इनकी अमिट छाप थी, जो उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन के आध्यात्मिक पिता के रूप में स्थापित करने को तत्पर थी। वस्तुत: स्वामी जी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के मार्ग पर स्थितप्रज्ञ मानव के रूप में रहकर परतंत्रता के लिए हमें अपनी संस्कृति से विमुख होने को ही कारण माना व इसके निवारण के लिए प्रयत्नशील रहे। इसी संदर्भ में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उन्हें ‘भारतवर्ष का वास्तविक रक्षक’ के रूप में सम्बोधित किया। रक्षक इस हेतु भी कि उन्होंने गरीब, बेसहारा और पददलितों को ईश्वर का प्रतिरूप माना तथा इनकी सेवा को ही सच्चा धर्म माना। नर सेवा को ही नारायण सेवा माना। विश्व की वर्तमान कालखण्ड की स्थिति के संदर्भ में स्वामीजी संतुष्ट रहते, इसमें संदेह है वर्तमान भारत (वि) भौतिक विकास तो कर रहा है, परन्तु आध्यात्मिक विकास के बिना यह स्थायी नहीं है, जिसके निवारण के लिए उत्तम चरित्र व मानसिक शक्ति में वृद्धि की आवश्यकता के साथ-साथ ऐसे मन का विकास जो अन्य विचारों को भी स्थान दे व उन्हें आत्मसात करने की क्षमता के विकास पर जोर दे। उनके आत्मसात करने की क्षमता का तात्पर्य राष्ट्र व संस्कृति के विकास में पश्चिमी राष्ट्रों के विज्ञान-तकनीकी तत्वों को आत्मसात करने से है। अन्य संस्कृतियों के शुद्धतम रूपों को स्थान देने से है, परन्तु अपनी मूल भारतीय संस्कृति व विरासत को समझने से ही मानव जीवन का विकास संभव है, ऐसा वे मानते हैं। राष्ट्र व समाज के विकास के लिए मनन करने के साथ ही स्वामी जी युवा व महिलाओं के उन्नयण हेतु सदैव चिन्तनशील रहे। उन्होंने आदर्श व आध्यात्मिक संस्कृति-युक्त भारत के निर्माण हेतु सुसंगठित युवाओं को क्षमतावान बनाने पर बल दिया।
उनके अनुसार ‘अज्ञानी’ भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं।’ वे भारतीय युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं कि, ‘तू भी एक चिथड़े को अपने शरीर से लपेट कर उच्च स्वर में घोषणा कर कि सभी भारतवासी मेरे भाई हैं, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फूलवारी और बुढ़ापे की काशी है। भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है और दिन-रात प्रार्थना करो कि हे भोलेनाथ! हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दो, मेरी कापुरुषता, मेरी कायरता को दूर करो, मुझे मनुष्य बनाओ।’ इस वक्तव्य द्वारा स्वामीजी भारत वर्ष को युवा व अध्यात्मयुक्त संस्कृति का प्रतीक मानते हुए अभौतिक संस्कृति के उन्नयन की व्याख्या करते हैं, जहां धर्म का वास्तविक स्वरूप दरिद्रनारायण की सेवा तथा ईश्वर की प्रत्येक प्रतिकृति को ‘स्व’ मानना है। वे भविष्य की युवाओं के प्रति पूर्ण विस्त थे कि भविष्य में भारतीय युवा ही शक्ति सम्पन्न रहकर गरीबों, पददलितों, पतितों एवं बेसहारा लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हुए सेवा व सामाजिक उत्थान हेतु प्रयत्नशील रहेंगे।
अपने कालखण्ड के संदर्भ में स्वामीजी के विचारों में परिलक्ष्ति असंतोष, राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्यों को ही दर्शाती है। परतंत्र मानव, भौतिक तथा अभौतिक-दोनों रूपों में बन्धनयुक्त हो जाता है, जिसका निवारण समर्पण व त्याग से ही हो सकता है। उन्होंने समर्पण को ही मोक्ष का द्वार माना है। परोक्षत: भारत को पुन: विगुरु के रूप में प्रति स्थापित करने हेतु उनके विचार निश्चय ही अनुकूल प्रतीत होते हैं, जो कालन्तर में उत्पन्न महान विभूतियों हेतु पथ-प्रदर्शक के रूप में चिह्नित होंगे। उनके विचार भारतीय जनमानस के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में सदैव विद्यमान रहेंगे। उन्होंने युवाओं को अच्छे विचारों के चुनाव करने व उन्हें आत्मसात करने की सलाह दी है, जिनके बिना सफलता असंभव है। गरीबों, शोषितों, वंचितों की सेवा को अपना धर्म मानते हुए उन्होंने कहा है कि जब तक करोड़ों लोग भूखे और वंचित रहेंगे तब तक मैं हर उस आदमी को गद्दार मानूंगा, जिसने गरीबों की कीमत पर ज्ञान तो हासिल किया परन्तु उनके प्रति सदैव विमुख रहे। वंचितों के प्रति मानसिकता में परिवर्तन ही समस्या का समाधान है, जिससे सामाजिक सदभाव स्थापित किया जा सकता है।
समाज के श्रेष्ठ वर्ग द्वारा स्वयं से निचले वर्ग के प्रति जिम्मेदारी का बोध करवा पाना ही इस मार्ग में पहला कदम होगा और यही समाज के उत्थान हेतु आवश्यक भी है। स्वामी जी सामाजिक पतन हेतु अपराधियों से ज्यादा अच्छे लोगों की निष्क्रियता को उत्तरदायी मानते हैं। तात्पर्य यह कि समाज का पतन बुरे लोगों की करनी से नहीं, अपितु अच्छे लोगों के निष्क्रिय रहने से होती है। इसकी जिम्मेवारी उन्होंने सदैव युवाओं को दी है। सही अथरे में वे युग दृष्टा व युग सृष्टा थे। उन्होंने अपने कालखण्ड की स्थिति को समझा व नवभारत के निर्माण की नींव भी रखी। उन्नत भारतीय दर्शन को वर्तमान संदर्भ में देखते हुए उन्होंने नर सेवा को ही सवरेपरि माना जहां गरीबों, वंचितों के प्रति मानवीय-संवेदना बनी रहे। भारत के अतीत में पूर्ण आस्था रखते हुए व संस्कृति पर अभिमान करते हुए उनका, जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण अब भी जीवंत है और वे भारत के अतीत व वर्तमान के मध्य संयोजक के रूप में सदैव विद्यमान हैं।
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