स्मरण : आसान नहीं होगा खालीपन को भरना
साल की शुरुआत एक बुरी खबर से हुई। कृष्ण मोहन मिश्र नहीं रहे। थे तो वे बनारस के मगर लंबे समय से लखनऊ में रहते थे। उन्होंने कई समाचार पत्रों में सांस्कृतिक पत्रकारिता की।
स्मरण : आसान नहीं होगा खालीपन को भरना |
वे उन सांस्कृतिक पत्रकारो में थे, जिनकी तादाद हिंदी पत्रकारिता में खत्म-सी हो चली है। पूरे जीवन सांस्कृतिक पत्रकारिता ही करते रहे तो इस कारण कि उनकी रुचि इसमें गहरी थी।
हिंदी पत्रकारिता का साम्राज्य यूं तो पिछले कुछ दशकों में बहुत बढ़ा है और छोटे-छोटे शहरों में भी कई-कई अखबार छपने-बिकने लगे हैं, लेकिन यह बात भी सच है कि सांस्कृतिक साहित्यिक पत्रकारिता, जिसे पत्रकारिता की भाषा में ‘सांस्कृतिक बीट’ कहते हैं, पर गंभीरता से काम करने वाले संवाददाता गिने-चुने हैं। हिंदी पत्रकारिता के अपने 30 वर्षो के अनुभव से कह सकता हूं कि ज्यादातर समाचार पत्रों में सांस्कृतिक संवाददाता वे बन जाते हैं, जो लोकल टीम में नये-नये शामिल हुए होते हैं। ज्यादातर पत्रकारों की नजर में यह बहुत ही आसान काम होता है। इसकी खबरों को गाना-बजाना की खबरें कहा जाता है, जिन्हें बड़े-बड़े चित्रों के साथ सजाकर परोस दिया जाता है। अक्सर होता यह है कि इसकी सामग्री में भयंकर और हास्यास्पद भूलें होती हैं, कभी तबले पर कोई राग बजा दिया जाता है तो कभी गायन में झपताल सुना दिए जाते हैं। अक्सर संगीत की खबरों के शीषर्क मंत्रमुग्ध पर मुग्ध होते हैं। मैं ऐसे कई सांस्कृतिक पत्रकारों को जानता हूं, जिन्हें हबीब तनवीर और जावेद हबीब या सुरेंद्र वर्मा और सुरेंद्र शर्मा में फर्क करने में काफी मुश्किलें आ जाएंगी। ऐसे कई पत्रकारों को मैंने हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा जैसे कलाकारों से यह पूछते हुए भी सुनना है कि वे क्या बजाते हैं। अच्छी बात यह भी है कि ऐसे पत्रकारों का मन भी थोड़े दिनों में ही सांस्कृतिक पत्रकारिता से भर जाता है और वह अपराध, प्रशासन या सचिवालय की रौबदार पत्रकारिता की ओर चले आते हैं, लेकिन मिश्र उन पत्रकारों में थे, जो अपनी एक पूरी पृष्ठभूमि के साथ सांस्कृतिक पत्रकारिता में थे। ये वे पत्रकार होते हैं जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रु चि लेते हैं, उन्हें गंभीरता से देखते-सुनते हैं, रिपोर्ट तैयार करने में पूरी मेहनत करते हैं और लंबे समय तक इसी दुनिया में रमे रहना चाहते हैं।
कृष्ण मोहन मिश्र ने न सिर्फ शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी बल्कि लंबे समय तक बनारस में रंगमंच भी किया था। वे संवेदनशील तो थे ही, कला का व्याकरण भी समझते थे। संगीत के करीब रहने के लिए उन्होंने बेटियों को भी बकायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम दिलाई थी। हालांकि वे लंबे समय तक अपनी शतरे पर सांस्कृतिक पत्रकारिता करते रहे तो इसकी दूसरी वजहें भी थी। उन्हें पत्रकारिता को रोजी-रोटी के रूप में अपनाने का दबाव या संकट नहीं था। वह पॉलिटेक्निक में अपनी नौकरी से खुश थे और उसे पूरी मेहनत से करते थे। बाकी वक्त पत्रकारिता को देते थे। समाचार पत्रों में सांस्कृतिक पत्रकारों के साथ यह भी दिक्कत आती है कि या तो उनकी पदोन्नति रोक दी जाती है या फिर उनसे कहा जाता है कि आप सांस्कृतिक बीट के साथ ही कुछ दूसरी बीट की जिम्मेदारियों का भी निर्वाह करें। ऐसा इस कारण है कि सांस्कृतिक खबरों के संवाददाता को किसी उच्च पद के लायक नहीं समझा जाता है। समाचार पत्रों में अधिकतम वरिष्ठ संवाददाता के बाद उसके रास्ते बंद होने लगते हैं। यही वजह है कि बहुत सारे पत्रकारों ने पदोन्नति के लिए सांस्कृतिक संवाददाता की छवि को बदल देना जरूरी समझा और पेशेगत ढांचे में वे सफल भी हुए, लेकिन सांस्कृतिक संवाददाता पत्रकार तो होता है किंतु उसमें कलाकारों वाला फक्कड़पन और अपने काम से गहरा लगाव भी होता है।
मिश्र को इस तरह के दबावों में उलझना भी नहीं था। उनकी रोजी-रोटी कहीं और थी। इसलिए वे पूरे मन और मेहनत के साथ लंबे समय तक सांस्कृतिक पत्रकारिता करते रहे। उन्होंने प्रमुख समाचार पत्रों में कई-कई वर्षो तक पत्रकारिता की। बाद में जब इससे विरत हुए तो भी सांस्कृतिक विषय पर लेखन करते रहे। हाल में ही गिरिजा देवी पर एक लेख लिखते हुए उन्होंने मेरा ध्यान इस ओर फिर आकृष्ट किया था कि किस प्रकार कुंदल लाल सहगल ने बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए..में अंगना तो पर्वत भया, देहरी भई विदेस गाया है जो सही नहीं है, सही तो देहरी तो परबत भई, अंगना भयो विदेस..है। मिश्र सांस्कृतिक पत्रकार होने के साथ ही छायाकार भी थे और उन्होंने लंबे समय तक सांस्कृतिक कार्यक्रमों की खबरें करने के दौरान छायाचित्र के रूप में भी उन्हें संजोने का काम किया। उनके पास नाटकों और कलाकारों के कई दुर्लभ चित्र थे। वे रागों और उनसे जुड़े फिल्मी गीतों पर एक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते थे। परिवार वाले बताते हैं कि बीते साल के आखिरी दिन वे संगीत की ही कोई बंदिश सुनते हुए सोए थे और फिर उठ न सके। उनकी उपस्थिति सांस्कृतिक पत्रकारिता में एक उदाहरण के रूप में रही, जो अब स्मृतियों में दर्ज रहेगी।
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