विपक्षी एकता : वंचितों को केंद्र में रखना जरूरी

Last Updated 30 Dec 2020 12:11:49 AM IST

सियासत में आंकड़े पुराने नहीं होते और ये आंकड़े तो ऐतिहासिक हैं। ऐतिहासिक इसलिए कि भारत में पहली बार सत्ता का परिवर्तन हुआ था।


विपक्षी एकता : वंचितों को केंद्र में रखना जरूरी

बात 1977 की है। तब इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल खत्म करने के बाद आम चुनाव की घोषणा की। इस चुनाव में एक तरफ तो आजादी के बाद से सत्तासीन कांग्रेस थी तो दूसरी तरफ थी अनेक छोटे-छोटे दलों का गठबंधन। इस गठबंधन को जनता गठबंधन कहा गया। इस गठबंधन को आशा से अधिक सफलता मिली। आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो जनता गठबंधन को कुल मिलाकर 345 सीटें मिलीं तो कांग्रेस व उसके घटक दलों को 188। जनता गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी थी जनता पार्टी। जिसके संस्थापक थे जयप्रकाश नारायण। जनता पार्टी अकेले 298 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी। वोट प्रतिशत के हिसाब से बात करें तो जनता पार्टी और इसके घटक दलों को कुल 51.89 फीसद वोट मिले थे, जबकि मतों में कांग्रेस की हिस्सेदारी करीब 40.98 फीसद थी।
यह सर्वविदित है कि इस चुनाव के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी और अपने ही लोगों के भीतरघात की वजह अल्पायु में ही गिर भी गई। अब दूसरी तस्वीर देखते हैं। पिछले साल देश में लोक सभा चुनाव हुए। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अकेले तीन सौ से अधिक सीटों जीत दर्ज करने में कामयाब रही। अब इसके आधार पर आकलन किया जा सकता है कि 1977 में हालात क्या थे और अब हालात क्या हैं? उस समय भी जनता पार्टी थी, जिसमें तमाम गांधीवादी, लोहियावादी और जनसंघ के लोग थे। कहने को तो वे एक ही पार्टी यानी जनता पार्टी के घटक थे, परंतु उनके अंदर एकता नहीं थी।

असल में यह एकता जयप्रकाश नारायण के कारण बनी और तब निशाने पर थी कांग्रेस सरकर। अब एक बार फिर देश में उसी तरह की गोलबंदी आकार लेने लगी है। लिहाजा कुछ बातों पर गौर करना आवश्यक है। पहले तो यह कि महाराष्ट्र को एक मॉडल माना जा रहा है, जहां कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना अलग-अलग विचारधारा के बावजूद सरकार में हैं। इसके पहले कर्नाटक में इसका प्रयास जनता दल सेक्युलर के साथ मिलकर कांग्रेस द्वारा किया गया, लेकिन कांग्रेस की अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण वह प्रयोग असफल रहा। इसी वर्ष बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में इस प्रयोग को सफल करने की आधी-अधूरी कोशिशें की गई। नतीजा यह हुआ कि बहुमत के लिए आवश्यक 122 के आंकड़े को प्राप्त करने में राजदनीत महागठबंधन केवल 12 सीटें पीछे रह गई। अब सबकी निगाहें पश्चिम बंगाल पर है। वहां चुनाव होने हैं और भाजपा ने अपनी दावेदारी पुख्ता तरीके से पेश कर दी है। हालत यह है कि तृणमूल कांग्रेस और वामदलों के नेताओं ने भी भाजपा का दामन थामना शुरू कर दिया है। ऐसे में वहां कई दलों के बीच एकता की बात कही जा रही है। कई राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि भाजपा को रोकने के लिए सभी दलों को एक होना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वोटों में बिखराव होगा, जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। हालांकि अभी स्थिति साफ नहीं हुई है कि पश्चिम बंगाल में सभी गैर-भाजपाई दल एक होंगे और यदि हुए तो उसका आकार कैसा होगा, मुद्दे कैसे होंगे।
क्या वे अपने मुद्दों को दरकिनार कर एक होंगे जैसे 1977 में जयप्रकाश नारायण के कहने पर सभी गैर कांग्रेसी दलों ने किया था? जबकि दूसरी तरफ भाजपा है जिसके पास अपने एजेंडे हैं। वह हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। यही वह स्थिति है जब हम इसका मूल्यांकन कर सकते हैं कि गठबंधन धर्म के केंद्र में क्या होना चाहिए ताकि जो भी फलाफल हो, उसके दूरगामी परिणाम हों। इसके लिए यह समझने की आवश्यकता है कि आज की राजनीति में दलित, पिछड़े व आदिवासी समुदायों के लोगों की भूमिका बढ़ी है। इन सभी समुदायों के सामने विपन्नता है। शासन-प्रशासन में इनकी भागीदारी अब भी बहुत कम है। भूमिहीनता और विस्थापन का शिकार इन्हीं समुदायों के लोग हैं। ऐसे में यदि इन वगरे के हितों को केंद्र में रखकर कोई गठबंधन बनता है तो वह भाजपा की उग्र राजनीति का मुकाबला कर सकेगा। यही एकमात्र कसौटी है। इसे इस उदाहरण के साथ भी समझा जा सकता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में इस तरह के गठबंधन पहले भी बने। सरकारें भी बनीं, लेकिन जिस तरह की मजबूती भाजपा को मिली, वैसी मजबूती क्षेत्रीय छत्रपों की एकता में नहीं बन सकी। जैसे वर्ष 2015 में जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुए तब एनडीए के घटक रही नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया।
इस गठबंधन ने सफलता भी हासिल की, परंतु यह महागठबंधन केवल डेढ़ वर्ष तक कायम रहा और नीतीश कुमार ने खुद को अलग कर लिया तथा भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। वहीं उत्तर प्रदेश में भी 1990 के दशक में ही समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर सरकार का गठन किया, लेकिन जिस तरह के वैचारिक एकता की बात आवश्यकता थी, वह नहीं बन सकी। परिणाम आज सामने है। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार चला रही है तथा सपा व बसपा दोनों अलग-थलग हैं। असल में भाजपा के मुकाबले में आज जो राजनीतिक दल हैं, उनके अंदर तमाम तरह की विसंगतियां मौजूद हैं। मसलन, परिवारवाद और क्षेत्रीय मुद्दों तक सीमित रहना इन दलों के बीच आपसी एकता में अवरोधक हैं। वहीं भाजपा ने अपनी रणनीति में परिवारवाद को प्रश्रय उस तरह से नहीं दिया है जिस तरह का संरक्षण समाजवादी दलों ने दे रखा है। वहीं वामदलों की अपनी विसंगतियां हैं। उनके बीच एकता हमेशा से एक सवाल रही है। ऐसे में जो तस्वीर राष्ट्रीय स्तर पर सामने आती है, वह भाजपा के लिए सकारात्मक है। बहरहाल, यह अभी महज संभावना मात्र है।
कांग्रेस का राजनीतिक चरित्र ऐसा नहीं रहा है कि उसके केंद्र में गरीब-मजलूम रहे हैं। हालांकि 1970 में इंदिरा गांधी ने दलितों व आदिवासियों के लिए विशेष घटक योजनाओं की शुरूआत कर संकेत दिए थे कि कांग्रेस अपनी नीतियों में आमूलचूल बदलाव करने को तैयार है। यहां तक कि इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान में संशोधन कर संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द भी जोड़ा, लेकिन यह तब भी नाकाफी था और आज भी। ऐसे में यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि गैर-भाजपाई दल गठबंधन किस तरह का बनाते हैं और उनकी नीतियों में दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं या नहीं।

नवल किशोर कुमार


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