तेंदुओं की संख्या : खुशी कम, चिंता ज्यादा

Last Updated 30 Dec 2020 12:08:57 AM IST

देश में गुलदारों की संख्या में चार सालों के अंदर 60 प्रतिशत वृद्धि से केंद्र एवं राज्यों के वन एवं पर्यावरण विभाग गदगद नजर आ रहे हैं।


तेंदुओं की संख्या : खुशी कम, चिंता ज्यादा

बेशक बड़ी बिल्ली प्रजाति के बाघ या गुलदार जैसे मांसभक्षी स्वस्थ वन्य जीवन और अच्छे पर्यावरण के संकेतक होते हैं, लेकिन गुलदारों के कुनबे में उत्साहजनक वृद्धि उन राज्यों में वनों के अंदर और आसपास रहने वाले 27 करोड़ लोगों के लिए खुशी का नहीं, बल्कि खतरे का संकेत है क्योंकि इस धरती पर मानव जीवन के लिए सबसे खतरनाक जीव गुलदार ही माना जाता है।  
ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में गुलदार या तेंदुओं की संख्या 12,852 तक पहुंच गई है, जबकि इसके पहले 2014 में हुई गणना के अनुसार 7,910 तेंदुए थे। गुलदार अन्य मांसाहारी जीवों की तरह वन्य जीवन के संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। विडंबना है कि प्रकृति का यह वरदान देश की 27.5 करोड़ की उस आबादी के लिए अभिशाप भी हो सकता है जोकि वनों के अंदर और वनों के आसपास वनों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से निर्भर है। इनके लिए ये गुलदार साक्षात यमदूत बन कर प्रकट हो जाते हैं। भारत में बड़ी बिल्ली प्रजाति में भी गुलदार मनुष्य के लिए सबसे अधिक खतरनाक साबित हो रहा है।

भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, महाराष्ट्र और असम मानव-गुलदार संघर्ष से सबसे अधिक प्रभावित राज्य हैं। वह शिकार सहित ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर चढ़ जाता है। पेड़ों के साथ ही आबादी के निकट झाड़ियों में छिपा रहता है जबकि शेर और बाघ अपने भारी वजन के कारण पेड़ पर नहीं चढ़ सकते। स्वयं को छिपा भी नहीं सकते। मानव और गुलदार का अस्तित्व का संघर्ष नया नहीं है। लोग शिकारी जिम काब्रेट को भूले नहीं हैं। दिसम्बर, 1910 में उत्तराखंड के चंपावत जिले की पनार घाटी क्षेत्र में 436 लोगों को मार डालने वाले नरभक्षी गुलदार को काब्रेट ने मारा था। भारत में गुलदारों के आतंक के मामले में बिहार का भागलपुर जिला पहले स्थान पर रहा है, जहां 1959 से 1962 तक गुलदारों द्वारा लगभग 350 लोग मारे गए। उत्तराखंड दूसरे नम्बर पर माना जा सकता है, जहां 2000 से 2007 तक 239 लोग गुलदार का निवाला बने। उत्तराखंड में भी पौड़ी जिला गुलदार हमलों के लिए सर्वाधिक संवेदनशील है, जहां 1988 से 2000 तक गुलदारों द्वारा 140 लोग मारे गए।
1918 से 1926 तक पूरे गढ़वाल डिवीजन में 125 लोगों के मारे जाने का उल्लेख ऐतिहासिक दस्तावेज में दर्ज है। जनसंख्या के विस्तार और पर्यावासों के निरंतर संकुचन से रहने की जगह की कमी से मानव और वन्य जीव संघर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ता जा रहा है। उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण मंत्री हरक सिंह रावत के अनुसार प्रदेश में मानव एवं वन्य जीव संघर्ष में औसतन 32 लोग प्रति वर्ष मारे जाते हैं। इनमें भी सबसे अधिक लोग गुलदार के शिकार होते हैं। लॉर्ड डलहौजी के ‘चार्टर ऑफ इण्डियन फॉरेस्ट्स’-1855 और तदोपरांत 1864 में इम्पीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की स्थापना से पूर्व अंग्रेजी शासन की वन या वन्य जीव संरक्षण के प्रति सुनियोजित नीति नहीं थी। इसलिए व्यापारिक हितों की रक्षा तथा स्थानीय समुदाय को हिंसक वन्य जीवों से बचाने के नाम पर बड़े पैमाने पर बाघ एवं तेंदुओं का संहार कराया गया।
कंपनी सरकार के कार्यकाल में ब्रिटिश अफसरों द्वारा वन्य जीवों के शिकार के लिए गेम परंपरा भी शुरू की गई। ‘द हिस्टोरिकल जर्नल (वॉल्यूम 58-मार्च, 2015) में प्रकाशित विजय रामदास मंडल के शोधपत्र ‘द राज एंड द पैराडॉक्स ऑफ वाइल्ड लाइफ कन्जव्रेशन’ के अनुसार कंपनी सरकार ने बंगाल प्रेसिडेंसी में 1822 में 38,483 रुपये पारितोषिक में खर्च कर जनता को बचाने के लिए 5,653 बाघ मरवाए।
1875 में मेजर ट्वीडी ने अपने नोट में कहा था कि हर साल सरकार से इनाम पाने के लिए ब्रिटिश इंडिया में लगभग 20,000 बाघ और गुलदार जैसे हिंसक जीव मरवाए जाते हैं। एक अन्य शोधार्थी रंगराजन के अनुसार 1875 से लेकर 1925 तक ब्रिटिश राज में जनजीवन को बचाने के लिए 80 हजार बाघ और 1.50 लाख गुलदार मारे गए। भारत में प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ रही मानवीय निर्भरता और वन्य जीव आवासों के निम्नीकरण के फलस्वरूप मानव एवं वन्य जीवों के मय संघष्रात्मक स्थिति पैदा हुई है। इसलिए पर्यावरण संरक्षण में जनसहभागिता बढ़ाने के लिए ऐसी कार्ययोजना को मूर्त रूप दिया जाए जो स्थानीय लोगों की आर्थिक क्षति की पूर्ति कर सके ताकि मानव और वन्य जीव साथ-साथ रह सकें।

जयसिंह रावत


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