ऑनलाइन शिक्षा : बच्चों और शिक्षकों की व्यथा
क्या चार साल के एक बच्चे को पढ़ाना चाहिए कि मूली या प्याज या आलू जमीन के अंदर उगते हैं, या ऊपर।
ऑनलाइन शिक्षा : बच्चों और शिक्षकों की व्यथा |
तो बहुत से लोगों को इस तरह का ज्ञान बांटना फालतू लगता होगा। लेकिन मैं उनसे थोड़ा अलग विचार रखता हूं क्योंकि जब बचपन में चंदामामा में राजकुमार सिद्धार्थ (जो बाद में महात्मा बुद्ध हुए) की कहानी पढ़ रहा था तो उसमें यह पढ़ कर बड़ी हंसी आई थी कि जब उनसे पूछा गया कि चावल कहां से आते हैं, तो उन्होंने कहा ‘थाली से’। लेकिन बस। इससे ज्यादा नहीं। इतने छोटे बच्चों को यह सिखाना कि बैगन या आलू से क्या-क्या व्यंजन बन सकते हैं, और उन्हें कैसे काटा जाता है तो बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा खतरनाक है। क्या हम अपने नौनिहालों से अब रसोई में जाकर गैस जलाने और चाय बनाने को कहेंगे क्योंकि लॉकडाउन में स्कूल बंद हैं?
लेकिन यह हो रहा है और हम सबके घरों में हो रहा है क्योंकि स्कूल वालों से पंगा लेने की किसी में हिम्मत नहीं है। पता नहीं कि वो हमारे बच्चे को क्या रैंकिंग दे दें। हमारी बेटी, पोती या नाती को श्रीमती गुप्ता या श्री मिश्रा की लड़की से कम नम्बर मिल गए तो। कितनी इंसल्ट हो जाएगी। बात में दम तो है। हमारे समय तो मैट्रिक के बाद भी पिताजी सबके सामने दो झापड़ भी लगा देते थे और रोने पर एक और पड़ता था। पर ये बच्चे! बाप रे बाप! उनकी सहेलियों या दोस्तों के सामने किसी बात के लिए मना भी कर दिया तो बगावत। खैर, बात हो रही है ऑनलाइन पढ़ाई की जो कोरोना के कारण पिछले कुछ महीनों से छोटे बच्चों के लिए जी का जंजाल बनी हुई है। पांच साल से छोटे बच्चों, जो मार्च से स्कूल नहीं गए, अपनी टीचर की शक्ल नहीं देखी, अपनी क्लास के बच्चों से नहीं मिले हैं, से उम्मीद करना कि टीचर को फोन या लैपटॉप पर देख कर उनके हर सवाल का सही जवाब देंगे तो यह सदी का सबसे बड़ा अत्याचार होगा।
मैं कुछ बच्चों को जानता हूं जो ऑनलाइन पढ़ाई की वजह से आत्मविश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। कुछ बच्चे, जिन्होंने अभी-अभी बोलना शुरू किया था, अब तुतलाने लगे हैं और 40 मिनट स्क्रीन के सामने एक अनजान टीचर के सामने बैठने को राजी नहीं हैं। कुछ अभिभावकों ने इस प्रथा को बंद करने के लिए हस्ताक्षर अभियान भी चलाया लेकिन इस पर ज्यादा समर्थन नहीं मिल पाया क्योंकि ज्यादातर लोगों को मालूम है कि स्कूल में एडमिशन एवरेस्ट की चढ़ाई से कहीं अधिक कष्टदायक है। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ बच्चों के लिए दु:ख भरे दिन हैं। टीचरों की हालत तो और बुरी है। उन्होंने बच्चे को संतरा दिखा कर पूछा कि यह क्या है, और वो बड़े विश्वास से कह देता है कि आलू, तो वो ग़ुस्से में चिल्ला नहीं सकती और अपने पूरे मेकअप की मर्यादा रखते हुए मुस्कुरा कर कहना पड़ता है, ‘गलत जवाब।बेटा ये संतरा है, ऑरेंज, यू नो’। वो भी मजबूर हैं। उनकी सेलरी वैसे ही कम हो गई है, और अगर ऑनलाइन क्लास नहीं हुई तो वो भी खत्म। इसलिए वो भी छोटे-छोटे बच्चों से रोज 40 मिनट तक उनसे बात करने के नये-नये फॉर्मूला ईजाद करती रहती हैं। जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं।
दिक्कत यह है कि ऑनलाइन पढ़ाई से सिर्फ छोटे बच्चों का ही नहीं, बड़ी क्लास के बच्चों को भी विशेष फायदा नहीं हो रहा। उनकी दिन में तीन या चार बार क्लास तो होती हैं, लेकिन सिर्फ एकतरफा, जहां बच्चे कहीं भी बैठ कर या सोते हुए भी क्लास अटेंड कर लेते हैं। पता नहीं कि स्कूल वालों ने अपने आप यह फैसला किया या शिक्षा मंत्रालय के आदेश पर। ऑनलाइन क्लासें कभी दिन को होती हैं, कभी रात के 8 बजे। इससे छात्र और टीचर, दोनों परेशान हैं। यह अलग बात है कि इनसे उनको फायदा हो रहा है या नहीं, इसको चेक करने का कोई मापदंड नहीं बनाया गया है।
असल में सरकार खुद नहीं समझ पा रही है कि वो वचरुअल या ऑनलाइन पढ़ाई को कितनी अहमियत देती है। भारत में या शायद दुनिया में पहली बार इस तरह के हालात बने हैं कि इतने दिनों तक लॉकडाउन चला है। एक तरफ तो मिलने-जुलने से बीमारी फैलने का खतरा है और दूसरी ओर सरकार मानने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है कि ऑनलाइन परीक्षा से भी छात्रों की योग्यता की जांच हो सकती है। महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्य बोर्ड परीक्षा ऑनलाइन करना चाहते हैं लेकिन केंद्र सरकार और कोर्ट को यह स्वीकार नहीं है। नीट की परीक्षा के मामले में एक बड़ा वर्ग परीक्षा को आगे बढ़ाने के पक्ष में था लेकिन सरकार ने अभ्यर्थियों को बुला उनकी परीक्षा ले कर रिजल्ट भी निकाल दिए। अब वह 31 दिसम्बर को सीबीएसई के बोर्ड की परीक्षा की घोषणा संबंधी तारीख का छात्रों को इंतजार है, और यह परीक्षा ऑनलाइन नहीं होगी।
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