स्मरण : शास्त्रीयता से बचते हुए

Last Updated 20 Dec 2020 12:18:04 AM IST

प्रख्यात गायिका गिरिजा देवी पर पिछले दिनों कुछ काम करने का अवसर मिला।


स्मरण : शास्त्रीयता से बचते हुए

यूं तो बनारस में गिरिजा देवी का खूब साथ रहा लेकिन जब उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी ने अपनी पत्रिका ‘छायानट’ का विशेषांक उन पर केंद्रित किया और उसके संपादन का दायित्व मुझे सौंपा तो यह उनकी मृत्यु के बाद उनके जीवन और संगीत को समझने की पुनश्चर्या थी। उनके समकालीन ढेरों कलाकारों, शिष्य-शिष्याओं और संगीत लेखकों के आलेखों से गुजरते हुए मुझे एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण लगी।
यह गिरिजा देवी के संगीत की वह विशिष्टता थी, जिसका बर्ताव कम ही हो पाता है लेकिन जो अपने बनावट में बहुत जरूरी है। हालांकि ये बात बार-बार कही जाती है और इसमें सचाई भी है कि गिरिजा देवी को भले ही ठुमरी गायिका के रूप में एक व्यापक पहचान मिली, उन्हें ‘ठुमरी क्वीन’ तक कहा गया, लेकिन वे खयाल की भी गायिका थीं और श्रेष्ठ गायिका थीं। ठुमरी गायिका के तौर पर उन्हें रेखांकित किया जाना उनकी प्रतिभा को सीमित करके ही देखना है। यह बनारस की संपूर्ण गायिकी के प्रति उपेक्षित नजरिया भी है कि वहां तो ठुमरी-दादरा जैसी उपशास्त्रीय चीजें ही गायी जाती हैं। गिरिजा देवी ने अपने कार्यक्रमों के जरिए इसका प्रतिवाद भी किया। जिन्होंने भी उन्हें सुना है वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे अपने प्राय: हर कार्यक्रम में खयाल जरूर गाती थीं, बल्कि उन्होंने ठुमरी महोत्सव जैसे समारोहों में भी अपने कार्यक्रम का आरंभ खयाल से किया है। उनकी ठुमरी के प्रशंसकों की बड़ी संख्या है, लेकिन ढेर सारे संगीतप्रेमी ऐसे भी हैं जो उनके खयाल के मुरीद हैं। बनारस के ही एक अन्य लोकप्रिय गायक राजन-साजन मिश्र कहते हैं, ‘वह अपने हर कार्यक्रम की शुरुआत विलंबित खयाल से करती थीं, उसके बाद द्रुत खयाल गाती थीं और तब ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती आदि जैसी चीजें गाना शुरू करती थीं, लेकिन अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त इस समाज ने उनकी प्रतिभा के इस पक्ष की ओर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया। इस समाज ने ऐसी ही नाइंसाफी उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब के साथ भी की थी। इतने बड़े और अद्वितीय गायक को भी सिर्फ  ठुमरी गायक घोषित कर दिया। हम लोगों ने दरबारी कान्हड़ा, अड़ाना और मालकौस आदि जैसे रागों में उनका अत्यन्त प्रभावशाली खयाल सुना है और कई बार सुना है, लेकिन गिरिजा देवी, जिन्हें ‘अप्पाजी’ भी कहा जाता है, कि जिस विशिष्टता की मैं यहां चर्चा करना चाहता हूं वह थोड़ी भिन्न है।

शास्त्रीय संगीत की कुशल गायिका और उपशास्त्रीय संगीत में पारंगत होने के समानान्तर उन्होंने लोकसंगीत की रचनाएं भी अपने गायन में शामिल कीं। इनमें कजरी, चैती, होरी, झूला जैसी रचनाओं की चर्चा की जा सकती है। उनके गाए इन रचनाओं की प्रसिद्धि भी खूब थी और अक्सर उनके कार्यक्रमों में उनसे इनकी फरमाइश भी की जाती थी। उनकी प्रमुख शिष्या, लोकगायिका मालिनी अवस्थी तो विन्ध्याचल (मिर्जापुर) की एक घटना का अक्सर जिक्र करती हैं, जिसमें श्रोताओं ने उनसे कजरी गाने की मांग की थी। कजरी प्राय: सावन-भादो में गाई जाती है और यह कजरी का अवसर नहीं था। पहले तो गिरिजा देवी ने यह कहते हुए मना किया कि अरे, ये तो होरी, चैता गाने का समय है, लेकिन जब मांग जोर पकड़ने लगी तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि मैं कजरी तो सुना दूंगी लेकिन अगर बारिश होने लगी तो आप लोग क्या करोगे? बताते हैं कि होली का समय था और आयोजकों एवं श्रोताओं को ये पूरा विश्वास था कि इस समय साफ मौसम में बारिश नहीं हो सकती तो उन्होंने कजरी की जिद पकड़ ली। मालिनी के अनुसार, अप्पा जी ने कजरी-घेरि आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया.सुनाना शुरू किया तो बिना मौसम वहां घटाएं घिर आई, बारिश होने लगी।
इस घटना को महज संयोग या संगीत की तासीर मानने के अपने अनुभव और विश्वास हो सकते हैं लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि गिरिजा देवी के लोकसंगीत का भी अपना एक गहरा असर था। शास्त्रीय संगीत में यह असर सुरों की शुद्धता, रागों के चलन, तानों की तैयारी, गमक के अभ्यास या तमाम दूसरे व्याकरण पर निर्भर करता है, कंठ का महत्त्व तो हालांकि होता ही है लेकिन सवाल यह है कि लोकसंगीत में यह असर कैसे आता है? मेरा मानना है कि लोकसंगीत में यह असर आता है उसकी सहजता और निश्छलता से, उसके उस खुरदुरेपन से जो एक आंचलिकता का आभास देता है, क्षेत्रीय बोली में रचे-पगे उसके साहित्य से और शास्त्र से उसे बचाए रखने से। ऐसा कर पाना उस कलाकार के लिए काफी मुश्किल है जो शास्त्रीय संगीत में सिद्धहस्त हो, तानों और लयकारियों में खेलता हो, खयाल से बाहर जाता भी हो तो उपशास्त्रीय रचनाओं में। ऐसे कलाकारों के लिए लोकसंगीत को शास्त्रीयता से बचाना कोई आसान नहीं। कहना गलत न होगा कि लोक से शास्त्रीय संगीत तो समृद्ध होता रहा है, लेकिन लोकसंगीत में अगर शास्त्रीय संगीत के असर का प्रयास होगा तो उसकी कोमलता नष्ट हो जाएगी।

आलोक पराड़कर


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment