मीडिया : नागरिकता आंदोलन के सबक

Last Updated 29 Dec 2019 12:21:10 AM IST

जो बहसें संसद में और मीडिया में नहीं खुलीं वे सड़कों पर आकर खुल गई हैं। एक नये किस्म का शक और डर फैल गया है, और वही विरोध बनकर सड़कों पर आ गया है।


मीडिया : नागरिकता आंदोलन के सबक

पिछले दस दिनों में जिस संख्या में और जिस समेकित भाव से विश्वविद्यालयों के छात्र अखिल भारतीय स्तर पर ‘नागरिकता कानून’ और आसन्न ‘एनआरसी’ से आशंकित होकर उनके विरोध में उतरे हैं, वह एकदम अभूतपूर्व है। जामिया के छात्रों ने उसे लीड दी और खबर चैनलों के लाइव प्रसारणों के जरिए देखते-देखते विरोध अखिल भारतीय हो उठा।
चूंकि यह आंदोलन प्रमुखत: सोशल मीडिया द्वारा संचालित रहा इसीलिए सरकारों ने प्रदर्शन-प्रभावित इलाकों की इंटरनेट सेवाएं बंद कीं लेकिन फिर भी ये प्रदर्शन न रुके। हिंसा होने लगी। पुलिस ने एक्शन किया। सैकड़ों युवा गिरफ्तार किए गए। बीसियों लोग यूपी में मारे गए। आजकल प्रशासन उनकी संपत्ति जब्त कर रहा है, लेकिन प्रदर्शन तब भी जारी रहे और अब भी जारी हैं। मीडिया में बहसें रहीं। शुरू में कुछ भक्त एंकर इस विरोध के मानी पूरी तरह न समझ सके। वे इस पॉपूलर विरोध को ज्यों का त्यों दिखाते रहे। जब आंदोलन को छह-सात दिन हो गए तो भक्त संभले और विरोध की इस निरीह-सी कहानी को संभालने लगे कि इसके पीछे ‘विपक्ष की साजिश’ है। ‘कांग्रेस की साजिश’ है। ‘टुकड़े टुकड़े गैंग की साजिश’ है। यह ‘देश-विरोधी’ है। ‘राष्ट्र-विरोधी’ है।

शुरू-शुरू में मीडिया ने इसे जब तक लाइव दिखाया तब तक उसके लिए ये प्रदर्शन, ‘टीआरपी खेंचू’ रहे। बाद में इनके प्रति ‘क्रिटीकल’ होने लगा। शुरुआत में जो प्रदर्शन मीडिया की भाषा में टॉप स्टोरी ‘स्टूडेंट प्रोटेस्ट’ था, अब वही ‘दंगाई मानसिकता वाला’ और ‘अराजक’ बताया जाने लगा। बीते दसेक दिनों के दौरान सत्ता पक्ष ने बताना शुरू किया कि ‘नागरिकता कानून’ पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में धार्मिक रूप से उत्पीड़ितों को नागरिकता ‘देने’ के लिए है न कि किसी की नागरिकता ‘लेने’ के लिए। फिर भी अगर लोगों में ‘शक’ और ‘डर’ व्यापा हुआ है तो क्यों हैं। सत्ता ने चाहा है कि लोगों को कानून के बारे में ‘सही बातें’ बताई जाएं ताकि ‘नागरिक कानून’ के बारे में फैले ‘भ्रम’ दूर हों। इसके लिए भाजपा ने कानून के पक्ष में प्रदर्शन भी किए लेकिन ‘विरोध-प्रदर्शन’ फिर भी जारी रहे। हर स्वत:स्फूर्त आंदोलन की सीमाएं होती हैं। इसी का फायदा उठाकर बहुत से सेलीब्रिटीज बहती गंगा में डुबकी मारकर अपने पाप धोते दिखे। बाहरी तत्व भी अपना हिसाब सेटिल करते दिखे लेकिन इससे ऐसे आंदोलनों के सवाल बेकार नहीं हो जाते। आरंभिक दौर में अचानक उठ पड़े इस आंदोलन ने कई सबक दिए हैं, जैसे कि:
-पहली बात यह कि कल तक कुछ नेता, जिस साठ-पैंसठ फीसदी युवा आबादी को ‘आकांक्षी पीढ़ी’ कहकर और उसका रहनुमा बनकर, उन्हीं का वोट लेकर सत्ता में आए, वही पीढ़ी इन दिनों उनके ‘कार्यों’ और उनके ‘इरादों’ पर गहरा शक जता रही है।
-दूसरी बात यह कि पिछले पांच सालों के दौरान बहुत से धर्म तत्ववादी नेता जिस सांप्रदायिक घृणा-भाषा का नित्य निर्माण करते रहे, उस घृणा-भाषा को इस आंदोलन ने सिरे से ‘रिजेक्ट’ कर दिया है, और उसकी जगह प्रेम, भाईचारे और सेक्युलर शब्दकोश का पुनर्वास कर दिया है। प्रदर्शनों में मुस्लिम छात्रों के साथ हर जगह हिंदू तथा अन्य छात्र खड़े नजर आते हैं।
-तीसरी बात यह कि यह आंदोलन सत्ता के खिलाफ होते हुए भी किसी एक विपक्षी दल का पर्याय न बना। यह अलग बात है कि विपक्ष ने इस बहती गंगा में डुबकी लगाई। फिर भी वे इसके ‘स्वतंत्र तेवर’ को वे अपना पालतू न बना पाए।
-चौथी बात यह कि इस आंदोलन में छात्राएं बड़ी संख्या में नजर आई। और कई तो इस आंदोलन पर लगाए जाते आरोपों का सजग तरीके से प्रतिकार करती नजर आई।
-पांचवीं बात यह सिद्ध हुई कि जो सोशल मीडिया सबको नार्सीसिस्ट और बदलाखोर बनाने के लिए बदनाम है, उसी के रचनात्मक इस्तेमाल के जरिए एक नया आंदोलन भी खड़ा किया जा सकता है। किसी भी तरह की ‘सर्विलांस’ इसे नहीं रोक सकी। यह अपने आप में नई बात है।
हमारे ऐन सामने ‘साइबर तकनीक सज्जित’ एक विराट ‘आकांक्षी पीढ़ी’ अपने आंदोलन से न केवल अपनी संविधान प्रदत्त नागरिकता की रक्षा में सक्रिय है, बल्कि अपनी ‘नागरिकता’ को ‘पुनर्परिभाषित’ भी कर रही है, और दावा कर रही है कि आज की पीढ़ी न सिर्फ ‘भारत की नागरिक’ है, बल्कि ‘विश्व नागरिक’ भी है।

सुधीश पचौरी


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