मानसिक स्वास्थ्य : व्यापक समझ जरूरी

Last Updated 30 Dec 2019 12:35:53 AM IST

विश्व के अनेक भागों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बहुत बढ़ गई हैं। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को किस तरह परिभाषित किया जाए और इनकी प्रमाणिक जानकारी कैसे एकत्र की जाए, इसके बारे में मतभेद हैं।


मानसिक स्वास्थ्य : व्यापक समझ जरूरी

इस बारे में मान्यता बढ़ रही है कि चिकित्सा क्षेत्र की सीमाओं से हट कर अधिक व्यापक सामाजिक-आर्थिक आधार पर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की समझ बनाना जरूरी है।
ऐसी समझ के आधार पर ही इन समस्याओं को न्यूनतम करने के सफल प्रयास हो सकते हैं। मुद्दा निश्चय ही केवल इलाज करने का नहीं है, अपितु इन समस्याओं व उनके कारणों को कम करने का है। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लांसेंट में हाल ही में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार वर्ष 2017 में 19.7 करोड़ भारतवासी (14.3 प्रतिशत लोग) मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से प्रभावित थे। इनमें से 4.5 करोड़ लोग डिप्रेशन (अवसाद) से प्रभावित थे व लगभग इतने ही लोग अधिक चिन्ता (एनजाइटी डिजआर्डर) से प्रभावित थे। अधिक तनाव इन दोनों समस्याओं का एक मुख्य कारक है। अनुसंधानकर्ताओं ने बताया है कि तेज सामाजिक बदलाव के दौर में यह समस्याएं बढ़ी हैं। पहले संयुक्त परिवार के दौर में समस्याओं को, दुख-दर्द को आपस में बांटने, समाधान खोजने की अधिक संभावना थी, जबकि हाल के वर्षो में संयुक्त परिवार टूटे हैं। डिप्रेशन अधिक आयु के वयस्कों में अधिक हैं। मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काफी हद तक यह जरूरी है कि उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी हों।

जब मनुष्य की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होती हैं तो इस स्थिति में एक अवधि गुजरने पर इस अभाव से जुड़ी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न होने की संभावना है। जैसे मनुष्य काफी समय तक गरीबी या अन्य कारणों से बहुत कम भोजन प्राप्त करे या उसको ठीक से नींद पूरी करने की स्थितियां न मिलें तो इससे मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। जब कोई व्यक्ति अपने सबसे प्रिय व्यक्तियों या बच्चों को बुनियादी जरूरतों के अभाव में पीड़ित होते देखता है तो इससे उसके मानसिक स्वास्थ्य को क्षति पहुंचती है। एक अन्य मुद्दा यह है कि किसी जरूरत की पूर्ति कैसे की जाती है, क्या इसकी पूर्ति का तरीका विकृत है? उदाहरण के लिए यौन इच्छा की पूर्ति क्या प्रगाढ़ मानवीय संबंधों के दायरे में की जाती है, या पोनरेग्राफी, हिंसा, आधिपत्य या सौदेबाजी के दायरे में की जाती है? यदि स्थिति दूसरी तरह की है, तो इससे मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। तीसरा मुद्दा यह है कि जरूरतों की पूर्ति एक संयम के माहौल में होती है या लालच के माहौल में। यदि अंतहीन लालच व उपभोक्तावाद का माहौल है व दूसरों की देखा-देखी उनसे आगे निकलने के लिए खरीद व उपभोग का माहौल है, तो इस उपभोग से संतोष नहीं मिलता है या केवल क्षणिक संतोष मिलता है व फिर कोई नया असंतोष उत्पन्न हो जाता है। यह स्थिति ऐसी है जो वास्तविक जरूरत होने के बावजूद मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की ओर ले जाती हैं। चौथा मुद्दा मानवीय संबंधों की प्रगाढ़ता व स्थिरता या इसके अभाव से जुड़ा है। मानवीय संबंध सुख-दुख में साथ निभाने, मजबूती, स्थिरता, प्रेम व सहयोग पर आधारित होने चाहिए। पर यदि यह स्वार्थ, आधिपत्य, अस्थिरता, हिंसा व हिंसक प्रतिस्पर्धा पर आधारित होते हैं तो इससे दोनों पक्षों के लिए मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। साथ में यह स्थिति अकेलेपन की ओर ले जाती है, जिससे बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि उनका वास्तविक हमदर्द कोई नहीं है या बहुत कम हैं। यदि मनुष्य के जीवन में व्यापक व सार्थक उद्देश्य हैं तो कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी वह दृ़ढ़ता से सामना कर सकता है, पर उसके जीवन में व्यापक सार्थक उद्देश्य न हों तो आसानी से भौतिक आवश्यकताएं पूरी होने पर भी उसमें मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से त्रस्त होने की संभावना अधिक होती है।
जिस तरह की परिस्थितियों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं अधिक उत्पन्न होती हैं वह परिस्थितियां सामाजिक-आर्थिक जीवन में बढ़ रही हैं। यही मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने का मुख्य कारण है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की यह व्यापक समझ बनाकर इन समस्याओं व उनके कारणों को न्यूनतम करने के प्रयास समग्रता से होने चाहिए। लांसेंट में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना, उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान देना जरूरी है व साथ में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं व उनके इलाज से जुड़े सामाजिक तिरस्कार को दूर करना भी जरूरी है।

भारत डोगरा


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