युवा : क्यों न करें राजनीति?

Last Updated 23 Dec 2019 02:55:18 AM IST

जब जब छात्र राजनैतिक व्यवस्था के विरुद्ध सड़क पर उतरते हैं, तब-तब ये सवाल उठता है कि क्या छात्रों को राजनीति करनी चाहिए?


युवा : क्यों न करें राजनीति?

इस सवाल के जबाव अपनी-अपनी दृष्टि से हर समुदाय देता है। जो राजनैतिक दल सत्ता में होते हैं, वे छात्र आन्दोलन की र्भत्सना  करते हैं। उसे हतोत्साहित करते हैं और जब छात्र काबू में नहीं आते, तो उनका दमन करते हैं। फिर वो चाहे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूदने वाले छात्र हों या 70 के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन से शुरू होकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आह्वान पर कूदने वाले छात्र हों, जिन्होंने इंदिरा गांधी की सत्ता पलट दी थी या फिर अन्ना हजारे के आन्दोलन में कूदने वाले छात्र हों।
रोचक बात ये है कि जो दल सत्ता में आकर छात्रों का दमन करते हैं, वही दल जब विपक्ष में होते हैं, तो छात्र आन्दोलनों को हवा देकर ही अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं हैं। अगर शिक्षा संस्थानों और अभिभावकों की दृष्टि से देखा जाऐ, तो भी दो मत हैं। जो संस्थान या अभिभावक चाहते हैं कि उनके निर्देशन में युवा केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, डिग्री हासिल करें और नौकरी करे, वे नहीं चाहते कि उनके छात्र किसी भी तरह की राजनीति में हिस्सा ले। मगर एक दूसरा वर्ग उन शिक्षकों और अभिभावकों का है, जो अपने छात्रों में पूर्ण विास रखते हैं और जानते हैं कि चाहे वे छात्र राजनीति में कितना ही हिस्सा क्यों न लें, उन्हें अपने भविष्य को लेकर पूरी स्पष्टता है। इसलिए वे पढ़ाई की कीमत पर आन्दोलन नहीं करेंगे। ऐसे संस्थान और अभिभावक छात्रों को रचनात्मक राजनीति करने से नहीं रोकते।

अगर निष्पक्ष मूल्यांकन करें, तो हम पाएंगे कि जो छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान देते हैं और रट्टू तोते की तरह इम्तहान पास करते जाते हैं, उनके व्यक्तित्व का सूंपर्ण विकास नहीं होता। प्राय: ऐसे नौजवानों में सामाजिक सरोकार भी नहीं होते। उनका व्यक्तित्व एकांगी हो जाता है और जीवन के संघर्ष में वे उतनी मजबूती से नहीं खड़े हो पाते, जितना कि वे छात्र खड़े होते हैं, जिन्होंने शिक्षा के साथ सामाजिक सरोकार को बनाए रखा हो। जो छात्र विज्ञान, शोध या तकनीकी के क्षेत्र में जाते हैं, उनकी बात दूसरी है। उनका ध्यान अपने विषय पर ही केंद्रित रहता है और वे अपने संपूर्ण अंगों को कछुए की तरह समेटकर एक ही दिशा में लगातार काम करते जाते हैं। अपने जीवन में मैंने भी अलग-अलग तरह माहौल में अनुभव प्राप्त किए हैं। जब तक मैं कॉलेज में पढ़ता था, तो मेरा व्यक्तित्व दो  धुरियों में बंटा था। मेरे पिता जो एक बड़े शिक्षाविद् थे, उनके विचार यही थे कि मैं पढूं और नौकरी करूं, जबकि मेरी मां-जोकि संस्कृत की विद्वान थी और मथुरा के रमणरेती वाले महाराज श्रद्धेय गुरु शरणनानंद जी की लखनऊ विवि की सहपाठी थीं-वे छात्र जीवन से ही गांधीवादी विचारधारा और सामाजिक सरोकारों को लेकर बहुत सक्रिय रहीं थीं। उनका ही प्रभाव मुझ पर ज्यादा पड़ा और 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंसेवक के रूप में पिछड़े गांवों में सेवा कार्य करने घर छोड़कर चला गया।
1974 के उस दौर में मैंने गांव की गरीबी और बदहाली में जीवन के अनूठे अनुभव प्राप्त किए। उसका ही परिणाम है कि आजतक मैं धन कमाने की दौड़ में न पड़कर समाज, राष्ट्र या सनातन धर्म के विषयों पर अपनी ऊर्जा पूरी निष्ठा से लगाता रहा हूं। अगर इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू न माना जाए, तो देश में जो लोग मुझे जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि मैंने प्रभु कृपा से भारत में कई बार इतिहास रचा है। निर्भीकता और समाज के प्रति समर्पण का ये भाव इसीलिए आया क्योंकि मैंने पढ़ाई के साथ समाज का भी अध्ययन जारी रखा। अन्यथा मैं आज किसी तंत्र की नौकरी में जीवन बिताकर खाली बैठा होता। जैसा आईसीएस रहे जेसी माथुर ने सेवानिवृत्त होने के बाद एक सुप्रसिद्ध बौद्धिक पत्रिका ‘दिनमान’ में एक श्रृंखला लिखी थी, जिसका मूल था कि ‘मैं आईसीएस में रहते हुए, एक मशीन का पुर्जा था, जिसका न दिल था, न दिमाग था’। कल का आईसीएस ही आज का आईएएस है। पिछले 35 वर्षो में सैकड़ों आईएएस अधिकारियों से मेरा संपर्क रहा है और मैं दावे से कह सकता हूं कि वही आईएसएस अधिकारी जीवन में कुछ ठोस और रचनात्मक कार्य कर पाते हैं, जो अपनी नौकरी के मायाजाल के बाहर, समाज से जुड़कर सहज जीवन जीते हैं और अपनी संवेदनशीलता को मरने नहीं देते। बाकी तो पूरी जिंदगी अच्छी पोस्टिंग और प्रमोशन के चक्कर में ही काट देते हैं। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं।
पर आमतौर पर यही अनुभव रहा है। इसलिए मैं इस बात का समर्थक हूं कि छात्रों को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। फिर वो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हों, किसी समाजवादी आन्दोलन के सदस्य हों, किसी वामपंथी आन्दोलन के सदस्य हों या किसी गांधीवादी आन्दोलन के सदस्य हों। जो भी हो  उन्हें इस प्रक्रिया से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। प्रांतीय और केंद्र सरकार का ये दायित्व है कि वे छात्र राजनीति पर तब तक अंकुश न लगाएं, जब तक कि वह हिंसात्मक या विध्वंसात्मक न हो। ऐसी छात्र राजनीति समाज की घुटन को ‘सेफ्टी वॉल्व’ के रूप में बाहर निकालती है और ये राज सत्ता के हित में ही होता है।
1885  में एक अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम ने जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करवाई थी तो उनका यही कहना था कि ये संगठन अंग्रेज सरकार के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करेगा। ये हुआ भी कि इसके 62 वर्ष बाद तक अंग्रेजी हुकूमत चली। जेएनयू को लेकर जितना दुष्प्रचार किया गया, उसमें सच्चाई का अंश बहुत कम है। उसी जेएनयू से पढ़े मोदी सरकार में विदेश और वित्तमंत्री हैं, तमाम सचिव  राजदूत हैं, हमारे जैसे सनातन धर्मी पत्रकार हैं। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि सारा हमला जेएनयू पर किया जा रहा है। किसी भी विश्वविद्यालय के प्रांगण में  विचारधारा के लोगों का होना छात्रों के विकास के लिए जरूरी होता है।

विनीत नारायण


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment