बतंगड़ बेतुक : पड़ोसियों को भी धर्मनिरपेक्ष बनाएं

Last Updated 22 Dec 2019 12:25:32 AM IST

‘ददाजू, सरकार न जाने किस कानून के नाम पर क्या कर गई है, सारे देश में आग लग गई है।


बतंगड़ बेतुक : पड़ोसियों को भी धर्मनिरपेक्ष बनाएं

हमें नहीं पता था कि सरकार सीधे हमारे घर में घुस आएगी, मुसीबत बन जाएगी,’ झल्लन हमें देखते ही बोला। हमने कहा,‘जरूर तूने सरकार विरोधी कोई बयान दिया होगा या कोई राष्ट्र विरोधी कोई काम किया होगा नहीं तो सरकार को क्या पड़ी कि तेरे जैसे निखट्टू के घर घुस आये, परेशान कर जाये।’
वह बोला,‘देखिए ददाजू, आपकी कुछ बातें सुनने लायक होती हैं तो उन्हें सुनते हैं,आप थोड़े-बहुत इज्जत पाने लायक हैं सो आपको इज्जत देते हैं,पर इसका मतलब ये नहीं कि आप अपुन जैसे देशभक्त को देश विरोधी बताएं और हम पर सरकार विरोधी होने की तोहमत लगाएं।’ हमने कहा,‘फिर तू क्यों परेशान है,हम तो तेरी बात पर हैरान हैं।’ झल्लन बोला,‘हम तो इसलिए परेशान हैं कि हमारी बीवी हमारी जान है और वह अपनी कामवाली को लेकर परेशान है।’ हमने कहा,‘तेरी इस परेशानी में सरकार का क्या योगदान है?’ वह बोला,‘सरकार जो कानून ला रही है, उससे हमारी कामवाली नादिरा घबरा रही है। अब सोचिए, अगर वह बांग्लादेश वापस चली जाएगी तो हमारे घर का क्या होगा, हमारी तो मुसीबत हो जाएगी।’ हमने झल्लन की ओर ताका और फिर अपने घर में झांका। हमारी कामवाली भी बांग्लादेशी है। हमारे घर में चौका-बासन के अलावा और काम भी संभालती है।

कभी चाय बना देती है तो कभी खाना पका देती है, हमारी बीवी के पास बैठकर अपना दुख-सुख बतियाती है, किन बुरे हालात से उसे अपना घर छोड़कर चोरी-छिपे भारत आना पड़ा है यह भी बताती है। वह कई घरों में काम करके थोड़ा-बहुत पैसा बनाती है, पैसा अपने घर भिजवाती है और जिन बच्चों को वहां छोड़कर आयी है उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभाती है। उसका नाम वैसे तो सबीना है पर हमने उसके नाम के आगे से ‘स’ हटाकर बीना बना दिया है और सच कहें तो उसे अपने परिवार का सदस्य बना लिया है। जो चिंता झल्लन को सता रही थी वह हमारे मन में भी घुस आयी कि अगर बीना चली गयी तो घर का काम-काज कौन देखेगा, हमारी बीवी की सेवा-टहल कौन सहेजेगा। हमने कहा, ‘झल्लन, तेरी परेशानी अब हमें भी परेशानी लग रही है पर हमें लगता है कि सरकार जो कर रही है वह भी सही कर रही है। आखिर कोई सरकार विदेशियों की घुसपैठ को क्यों सहन करेगी, जब अपने यहां ही भोजन-पानी के लाले पड़े हों तो गैरों का रहन-सहन क्यों वहन करेगी?’
झल्लन बोला,‘ददाजू, इसमें इन बेचारों का क्या दोष? ये तो बेचारे अभाव के मारे फटेहाल आते हैं, यहां थोड़ी गुंजाइश पाकर अपना धंधा जमाते हैं। इसे लेकर सरकार के पेट में क्यों दर्द उठना चाहिए,आखिर ये लोग भी तो इंसान हैं,इन्हें भी तो खाने-कमाने का अधिकार मिलना चाहिए?’ हमने कहा,‘खाने-पीने का इन्हें अधिकार है मगर अपने इस अधिकार का उपयोग इन्हें अपने देश में करना चाहिए न कि अपना वतन छोड़कर यहां चले आना चाहिए।’ झल्लन बोला,‘भूख का और जान का कोई वतन नहीं होता ददाजू, आदमी को जहां लगता है उसके पेट की आग बुझ जाएगी और जहां लगता है, उसकी जान बच जाएगी; वह वहां भागता है, वह न सीमा देखता है न देश देखता है। किसी भी सभ्य देश का काम यह नहीं है कि वह ऐसे लोगों को दुत्कारे, शंका करे या इन्हें धिक्कारे।’ हमने कहा, ‘एक सभ्य देश की यह जिम्मेदारी भी होती है कि उसका नागरिक अपने घर में रोजी-रोटी पा ले और बिना भेदभाव का शिकार हुए अपनी जिंदगी सुरक्षित बिता ले। मजहब-धर्म के चक्कर में किसी को अपना घर न छोड़ना पड़े और छोड़कर कहीं चला आये तो उसे निकालना न पड़े।’ झल्लन बोला, ‘सच कहते हो ददाजू, कोई धर्म-मजहब इंसानी भाईचारे से बड़ा नहीं होता, हर एक को समझना चाहिए कि इंसान इंसान में फर्क नहीं होता।’ हमने कहा,‘यही बात तो हम कह रहे हैं कि धर्म-मजहब के नाम पर सरकार नहीं चलानी चाहिए, हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान सबकी समझ में यह बात आनी चाहिए। धर्मनिरपेक्षतावादियों को चाहिए कि सारा जोर यहीं नहीं आजमाएं, धर्मनिरपेक्षता का थोड़ा पाठ पड़ोसी देशों को भी पढ़ाएं। वहां धर्मनिरपेक्षता नहीं आएगी तो यहां की धर्मनिरपेक्षता भी नहीं बच पाएगी।’ झल्लन बोला,‘मगर ददाजू, गलती तो उनकी है, जो इंसानियत पर मजहबियत को तरजीह दिये हुए हैं और पूरी दुनिया का जीना मुहाल किये हुए हैं,पर उनके पापों की सजा नादिरा, सबीना को क्यों? इनकी रोटी क्यों छीनी जाये?’
हमने कहा, ‘जरूरत इस बात की है कि इंसान को इंसान बनाया जाये, उसे धर्म-मजहब का नहीं इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाये।’ झल्लन बोला,‘ददाजू, ‘धर्मनिरपेक्षतावादी तो आप भी हैं, थोड़े हम भी हैं, चलिए, उठिए,पाकिस्तान चला जाये, उन्हें धर्मनिरपेक्ष बनाया जाये और भारत जैसा समानाधिकारी संविधान वहां भी लागू कराया जाये।’ हमने झल्लन के मासूम चेहरे की तरफ देखा तो हमारी सारी झुंझलाहट गायब हो गयी, चेहरे पर मुस्कुराहट कायम हो गयी। सोचा, काश! ऐसा हो जाता।

विभांशु दिव्याल


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