वैश्विकी : इंसाफ का बर्बरनामा
पाकिस्तान की विशेष अदालत ने अपने पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को मृत्युदंड की सजा सुनाई है। यह हैरानी की बात है।
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परवेज मुशर्रफ पर चाहे जो आरोप लगे हों और चाहे जो अभियोग सिद्ध हुआ हो, लेकिन अपने समय के सबसे प्रभावशाली सेनाध्यक्ष और पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ को जिस तरह से फांसी की सजा सुनाई गई है, वह पाकिस्तान में ही संभव है। अदालत के आदेश में सजा को जिस तरह देने का प्रावधान किया गया है, वह इक्कीसवीं सदी के किसी भी सभ्य समाज को हतप्रभ करने वाला है। आदेश दिया गया है कि मुशर्रफ को घसीट कर लाया जाए और इस्लामाबाद के डी चौक पर फांसी देकर तीन दिन तक लटके रहने दिया जाए। यहां तक भी गनीमत थी, लेकिन आदेश कहता है कि अगर मृत्युदंड से पहले ‘इस भगोड़े अपराधी की मृत्यु हो जाती है, तो भी उसकी लाश को घसीट कर लाया जाए और लाश को तीन दिन तक लटके रहने दिया जाए’। इक्कीसवीं सदी के इस चरण में अफ्रीकी देशों में भी इस तरह की सजा की कल्पना नहीं की जा सकती।
यहां सत्रहवीं शताब्दी में रहे ब्रिटेन के शासक ऑलिवर क्रॉमवेल का उदाहरण दिया जा सकता है। क्रॉमवेल ने इंग्लैंड के राजा चाल्र्स को 1649 में मृत्युंदड दिलवाया था। वह कुछ समय के लिए इंग्लैंड का शासक भी बना था। उसने अपने समय में इंग्लैंड की राजशाही को गणतंत्र में बदल दिया था। 1658 में जब उनकी स्वाभाविक मृत्यु हुई तो उनके शव को लेप लगाकर वेस्टमिंस्टर कै थड्रेल में अंतिम संस्कार किया गया था। लेकिन इंग्लैंड में राजशाही की पुनर्वापसी होने पर चाल्र्स द्वितीय के सत्ता में आने के बाद क्रॉमवेल के शव को कब्र से निकाला गया और उन्हें फांसी दी गई। लेकिन इक्कीसवीं सदी की दुनिया इस बर्बर युग से बाहर आ चुकी है। परवेज मुशर्रफ को फांसी दिए जाने के फैसले पर सभ्य दुनिया ने ही क्षोभ व्यक्त नहीं किया है, बल्कि पाकिस्तान में भी इसके प्रति आक्रोश उभरा है। वहां के सैनिक प्रवक्ता मेजर जनरल गफूर ने कहा है कि फैसले में जो शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, वे मानवता, धर्म, संस्कृति और किसी भी जीवन मूल्य से परे हैं। पाकिस्तान की सरकार ने भी फैसला देने वाले पेशावर हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ के प्रमुख चीफ जस्टिस वकार अहमद शेठ को पागल करार दे दिया है। लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि भले ही यह न्यायाधीश पागल हो, लेकिन वह पाकिस्तान की न्यायपालिका का एक स्तंभ रहा है। उसने अगर फांसी देने का बर्बर तरीका सुझाया है, तो यह उसकी बर्बर मानसिकता से ही पैदा हुआ है। परवेज मुशर्रफ को मृत्युदंड की सजा 2007 में पाकिस्तान पर आपातकाल थोपने, संविधान को बदलने और न्यायाधीशों को हिरासत में रखने के आरोप में सुनाई गई है। कहा जा सकता है कि इस फैसले की पृष्ठभूमि मुशर्रफ के द्वारा जजों को हिरासत में रखना था। इसलिए पिछले कुछ अरसे से पाकिस्तान में न्यायपालिका और सेना के बीच टकराव जारी है। अभी हाल में सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के कार्यकाल को बढ़ाने के मामले में भी सेना और न्यायपालिका आमने-सामने आ गई थीं।
मुशर्रफ को फांसी की सजा सुनाकर न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता की ओर कदम बढ़ा रही है, और इससे जाहिर होता है कि न्यायपालिका न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित करना चाहती है। लेकिन सेना और सरकार जिस तरह से न्यायपालिका के इस फैसले की आलोचना कर रही हैं, उससे जाहिर होता है कि न्यायपालिका की मंशा पूरी नहीं हो पाएगी। पाकिस्तान की इन घटनाओं को देखकर यह तो कहा ही जा सकता है कि अपनी आजादी के 72 सालों में भी यह देश सभ्य समाज की न्यायिक व्यवस्था को आत्मसात क्यों नहीं कर पाया और क्यों उसकी न्याय व्यवस्था बार-बार मध्ययुगीन बर्बरता की ओर लौट जाती है।
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान ने कभी भी अपने भीतर की इस बर्बरता को मरने नहीं दिया। कभी मजहब के नाम पर, कभी राजनीति के नाम पर और कभी भारत के साथ शत्रुता के नाम पर वह इस बर्बर मानसिकता का पोषण करता रहा और उसे बढ़ावा भी देता रहा है। ऐसा नहीं होता कि आप दूसरों के प्रति अपनी बर्बरता को जायज ठहराते रहें और यही बर्बरता जब आपके ऊपर पलट कर आए तो आप इसे पागलपन बताकर किनारे हो जाएं। यह घटना दुनिया को चौंकाने वाली है, और पाकिस्तान के लिए आंखें खोलने वाली भी है।
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