सीएए : भेदभावपूर्ण है कानून
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर लोगों का विरोध बढ़ता ही जा रहा है और इसके साथ ही बढ़ता जा रहा है सरकारी दमन भी।
सीएए : भेदभावपूर्ण है कानून |
ताजा उदाहरण दिल्ली के जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया विश्वविद्यालय का, जहां एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को तितर-बितर करने के नाम पर दिल्ली पुलिस ने छात्रों पर जमकर कहर बरपा किया। पुलिस ने जिस तरह छात्रों को निशाना बनाया, वह एक निंदनीय कृत्य है और लोकतंत्र के नाम पर कलंक है।
मामला यह है कि रविवार को स्थानीय लोग एनआरसी और सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। तभी वहां भारी संख्या में पुलिस पहुंची और विश्वविद्यालय कैंपस के बाहर और भीतर छात्र-छात्राओं पर लाठियां बरसाने लगी। इसी बीच बसों में तोड़फोड़, आगजनी और पत्थरबाजी की घटनाएं हो गई। पुलिस को तो जैसे इसी का इंतजार था। इसके बाद पुलिसकर्मिंयों ने बर्बरता की सारी सीमाएं तोड़ डालीं। लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहे छात्र-छात्राओं को बुरी तरह पीटा। इतना ही नहीं, पुलिस ने शौचालयों तक में घुसकर छात्रों की पिटाई की। जिस तरह सोशल मीडिया में पुलिस को अपने गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए स्वयं ही बसों को आग के हवाले किए जाने की तस्वीरें वायरल हुई, उससे पुलिस और सरकार का दमनात्मक चेहरा ही सामने आता है। इसमें कोई शक नहीं कि कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस की है, लेकिन उसकी आड़ में वह किसी समुदाय विशेष या संस्थान विशेष को निशाना बनाने लगे, तो उसे कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है। यहां सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि परिसर में पुलिस किसकी इजाजत से घुसी थी।
जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर नजमा अख्तर ने स्पष्ट कहा है कि उन्होंने पुलिस को नहीं बुलाया। इसके बावजूद परिसर में पुलिस कैसे और क्यों घुस गई? क्या वहां आतंकवादी कार्रवाई चल रही थी, जो उसे पकड़ने के लिए पुलिस बिना परमिशन के परिसर में घुस गई? अगर पुलिस इसी तरह अकारण और बिना परमिशन के विश्वविद्यालय परिसरों में घुसने लगी, तो उसकी स्वायत्तता का क्या अर्थ रह जाएगा? सोचने वाली बात तो यह भी है कि पुलिस ने परिसर में घुसने के क्रम में विश्वविद्यालय के सुरक्षा गाडरे को भी निशाना बनाया। पुलिसिया कार्रवाई को देखकर ऐसा महसूस होता है, जैसे सारे अपराधी, जेहादी और आतंकवादी कैंपस में ही रहते हों। इस पुलिसिया बर्बरता की जितनी भी आलोचना की जाए, कम होगी। यह कितनी खलने वाली बात है कि बड़ी संख्या में छात्रों को हाथ ऊपर करवा कर बाहर ऐसे निकाला गया, ऐसे वे दुर्दात अपराधी या युद्धबंदी हों। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है, जहां छात्र-छात्राओं की बेवजह पिटाई की जाती है और उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है। मालूम हो कि इतनी बर्बरता के बावजूद किसी भी छात्र ने पुलिस पर हमला नहीं किया और न कोई चोट पहुंचाई। किसी भी छात्र के पास से किसी न तो किसी तरह की संदिग्ध वस्तु या हथियार बरामद हुई। कहने की आवश्यकता नहीं कि पुलिस ने अपने आकओं के आदेश पर ही ऐसा बर्बर रु ख अपनाया, जिसका उद्देश्य था समुदाय विशेष को निशाना बनाना।
हम दावा करते अघाते नहीं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। क्या एक लोकतांत्रिक देश की पुलिस का यही आचरण होना चाहिए? हमारी सरकार को इतना तो सोचना चाहिए कि आज जो छात्र-छात्राएं धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, वही कल हमारे देश के भाग्य विधाता बनेंगे। जब जरूरत है कि उन्हें अधिक लोकतांत्रिक बनाया जाए, तो हमारी सरकार उनकी लोकतांत्रिक मुश्कें बांध रही है। क्या हमारे देश में अब ऐसे ही लोकतंत्र चलेगा? एक बात तो साफ है कि यदि हम देश में लोकतंत्र को जिंदा रखना है, तो ऐसे किसी भी सरकारी दमन के खिलाफ हमें खड़ा होना होगा। इस प्रकरण में सत्ता पक्ष की और से जो बातें कही जा रही हैं, उससे भी शंका होती है कि एनआरसी और सीएए के जरिये वह सोशल इंजीनियरिंग करने का प्रयास कर रही है और उसे लोगों की आशंका दूर करने की कोई जरूरत नहीं है। भाजपा सांसद राकेश सिन्हा का कहना है कि यह 1947 का भारत नहीं है, बल्कि 2018 का भारत है, जहां डाइरेक्ट एक्शन नहीं चलेगा। किसी अन्य को क्या कहें, स्वयं हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि ड्रेस देखकर ही पता चल जाता है कि एनआरसी और सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले कौन लोग हैं। ये बयान न केवल उनकी असंवेदनशीलता को उजागर करते हैं, बल्कि उनकी कुत्सित मंशा को भी। भाजपा नेताओं के बयान धमकाने वाले हैं न कि सामंजस्य स्थापित करने वाले। ऐसी विघटनकारी प्रवृत्ति का आवश्यक रूप से विरोध किया जाना चाहिए। अन्यथा नहीं कि एनआरसी और सीएए के खिलाफ पूर्वोत्तर के राज्यों और बंगाल से निकली चिनगारी अब पूरे देश में फैलती जा रही है। जामिआ मिल्लिआ विश्वविद्यालय की घटना के विरोध में महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु, केरल और उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में प्रदर्शन होने लगे हैं। सरकार कहती है कि एनआरसी और सीएए के मुद्दे पर लोगों में गलतफहमी है। तब सवाल उठता है कि वह गलतफहमी दूर क्यों नहीं कर रही है। सच तो यही है कि सीएए हमारे संविधान में निहित समता के सिद्धांत का हनन करता है। अगर यह कानून भेदभाव करने वाला नहीं है, तो इसमें मुसलमानों को क्यों नहीं शामिल किया गया है। भारत कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं है कि वह केवल हिन्दू शरणार्थियों का खयाल रखे। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जो जाति, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता, लेकिन मोदी सरकार ने नये कानून के जरिए हमारे संविधान का मजाक उड़ाया है।
यदि नये कानून पर सरसरी नजर डालें, तो जल्दी स्पष्ट हो जाता है कि इसमें भेदभाव है। धार्मिंक उत्पीड़न के आधार पर हिन्दू, बौद्ध, जैन, पारसी, सिख और ईसाई को तो नागरिकता प्रदान की जा सकती है, लेकिन पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय को इससे अलग रखा गया है, जबकि यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में क्रमश: अहमदिया और हजारा समुदाय के लोगों का धार्मिंक उत्पीड़न होता है। श्री लंका और म्यांमार से धार्मिंक उत्पीड़न के आधार पर भारत आने वालों को आखिर क्यों छोड़ दिया गया? इसके अलावा अनिरवादियों के उत्पीड़न पर भी कानून चुप है। इस उपक्रम की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी। शायद मोदी सरकार अपनी प्राथमिकता भूल गई है।
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