कॉप-25 : जवाबदेही से बचते विकसित देश
पर्यावरण को लेकर विकसित देश कितने संजीदा हैं, यह स्पेन के मैड्रिड में हुए कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज-कॉप-25-को देखने-समझने से पता चलता है।
कॉप-25 : जवाबदेही से बचते विकसित देश |
दो सप्ताह और अतिरिक्त 40 घंटे खर्च करने के बावजूद 200 देशों के नेता, नौकरशाह और पर्यावरण की घोर चिंता करने वाले पर्यावरणविद किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। सीधे शब्दों में पर्यावरण को लेकर आयोजित यह बड़ा सम्मेलन बिना किसी सकारात्मक परिणाम के रहा। निराशा इस मायने में बड़ी है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने बिना लाग-लपेट के कहा कि दुनिया ने बड़ा मौका गंवा दिया। हम हार नहीं मानेंगे। मैं तो हर्गिज नहीं मानूंगा। न्यूयार्क की डेमोक्रेट कांग्रेस वुमन अलेक्जेंड्रा ओकासियो कोर्टेज का कथन ज्यादा मारक है। अलेक्जेंड्रा ने कहा कि कॉप-25 जैसा सम्मेलन दरअसल पर्यावरण से जुड़ी चर्चाओं के लिए अहम मंच है ना कि नेताओं के मजे के लिए कॉकटेल पार्टी जैसे आयोजन के लिए।
ऐसे निराशाजनक बयान स्पष्ट तौर पर इंगित करते हैं कि पर्यावरण को लेकर विकसित देशों का नजरिया कितना संकुचित है। जबकि ग्लोबल वार्मिग के एक्शन को लेकर मैड्रिड में संपन्न सम्मेलन में मौजूद देशों से उम्मीद थी कि वे इस पर कोई साफ और सरल घोषणा करेंगे। मानवता का अस्तित्व दांव पर है, ऐसे में पहले से ज्यादा और बेहतर करने का इरादा दिखाने की उम्मीद थी। यह भी आशा थी कि कॉप-25 के अंतिम घोषणापत्र में पूरी दुनिया से अगला साल खत्म होने से पहले जलवायु आपातकाल (क्लाइमेट इमरजेंसी) से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने की अपील करेंगे, पर इसमें कुछ खास नहीं हुआ।
सम्मेलन में इन विकल्पों को कई देशों ने गैर जरूरी माना। यह तथ्य किसी से छुपा या अनजान नहीं है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के उपाय करना या उपाय तलाशना एक बड़ी चुनौती है, जिसके चलते पृथ्वी लगातार गर्म हो रही है। 2015 के पेरिस समझौते में सभी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास का भरोसा दिलाया था, मगर इन कोशिशों का नतीजा ये है कि पृथ्वी की गर्मी उल्टे 3 डिग्री सेल्सियस ज्यादा बढ़ गई। क्योंकि पेरिस समझौता 2020 से प्रभावी होना है। संयुक्त राष्ट्र पैनल का मानना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा गर्मी मुश्किलों को आमंतण्रदेने जैसा है। पूरी दुनिया के लोग इस खतरे से वाकिफ हैं और इसी कारण अलग-अलग देशों के युवाओं ने मार्च निकाला, ताकि उनकी सरकारों तक बात पहुंचे, लेकिन जब दुनिया को स्पष्ट संदेश देने की बारी आई तो मैड्रिड सम्मेलन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया। इसमें सिर्फ पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए और प्रयास करने की अपील भर की गई। इस घोषणा के शब्दों पर ही कई दिनों तक चर्चा होती रही। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम करने पर चर्चा नाममात्र की हुई। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश अपनी जवाबदेही से भागते नगर आए। जहां तक भारत की बात है, पेरिस समझौते के तहत भारत इस बात पर राजी हुआ था कि कार्बन उत्सर्जन की रफ्तार 2030 तक 33 से 35 फीसद तक कम करेगा। इसके साथ 3 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड प्रभावित क्षेत्र को जंगल और पौधों से भरेगा। चीन और अमेरिका के बाद भारत ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन करने वाला विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स, चावल की खेती और पशु इस उत्सर्जन के सबसे बड़े कारक हैं और इसमें तेजी से बढ़ोत्तरी जारी है।
2002 में, भारत ने नई दिल्ली में (यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लामेट चेंज) से संबंधित आठवें आधिकारिक बैठक का आयोजन और उसकी अगुवाई की थी। इस बैठक में दिल्ली मिनिस्ट्रियल घोषणापत्र को अपनाया गया था। इसमें विकसित देशों से टेक्नोलॉजी को ट्रांसफर करने की अपील की गई थी, जिससे विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी लाने और खुद को जलवायु परिवर्तन के मुताबिक ढालने में उसे मदद मिले। 2017 में किए गए एक और सर्वे से ये बात सामने आई कि 47 फीसद भारतीय जलवायु परिवर्तन को अपने देश के लिए ‘बड़ा खतरा’ मानते हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैये में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीरता दिखाने की जगह विकसित (धनी) देश मामूली काम करते हैं। इससे समस्या जस-की-तस बनी हुई है। कोयले की ‘खल’ भूमिका के बारे में जानने के बावजूद एक साल के यह मसला टल गया है। अब ग्लासगो में इस पर चर्चा होगी। तब तक ग्लोबल वार्मिग के खतरे से दो-चार होते रहना होगा।
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