आतंकवाद : इस्लाम ही बीड़ा ले

Last Updated 28 Nov 2017 01:55:13 AM IST

मिस्र के सिनाई प्रांत में अल रौदा मस्जिद पर आतंकवादियों ने शुक्रवार को नमाज के दौरान हमला किया, जिसमें कम से कम 305 लोगों की मौत हो गई तथा करीब 109 घायल हो गए.


मिस्र के सिनाई प्रांत में अल रौदा मस्जिद पर आतंकी हमला

राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल सीसी ने सही ही इसे मिस्र का सबसे भीषण आतंकवादी हमला करार दिया है. अरब लीग के काहिरा स्थित प्रमुख अहमद अब्दुल घेइत ने भी इस हमले की निंदा की एवं हमलों के खिलाफ इस्लाम के एक होने का आह्वान किया.

उनका कहना था कि इस्लाम का आतंकी विचारों को मानने वालों से कोई वास्ता नहीं है. लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? आतंकवादियों का मुख्य लक्ष्य दहशत कायम करना माना जाता है, लेकिन उसके पीछे एक  विषैला विचार होता है. इस हमले के पीछे भी यही दिखाई देता है. अरब जगत के विश्लेषकों ने कहा है कि आतंकवादियों के निशाने पर सुरक्षा बलों के समर्थक थे यानि जो लोग आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई का समर्थन करते हैं, उन्हीं लोगों को हमले का लक्ष्य बनाया गया था.

कौन हैं ये लोग? इसी प्रश्न के उत्तर में इस हमले के गंभीर और चिंताजनक निहितार्थ छिपे हुए हैं. किसी संगठन ने इस हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है. पूर्व में इस्लामिक स्टेट (आईएस) यहां भारी संख्या में पुलिसकर्मिंयों, सैनिकों तथा नागरिकों की हत्याएं कर चुका है. वस्तुत: वह उदारवादी सूफी मत को मानने वालों और ईसाइयों को निशाना बनाता रहा है. अल रौदा मस्जिद में सूफी विचार के लोगों का आना-जाना होता है. इस तरह यह कट्टरपंथी सुन्नी वहाबी सलाफी विचार के हिंसक समूह द्वार सुन्नी मत के ही एक समुदाय पर हमला किया गया है, जो उनके विचारों के समर्थक नहीं हैं. अपने विचार से अलग मुसलमानों को ये इस्लाम का दुश्मन मानते हैं. उनका कहना है कि ये पैगम्बर मोहम्मद के विचारों को नहीं मानते. लिहाजा, इनसे धरती खाली कराया जाना जरूरी है. 

कुछ लोग यह कह रहे हैं कि सन 2011 में जनवरी में क्रांति के दौरान राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक को अपदस्थ किए जाने के बाद से सिनाई प्रांत अस्थिर है, और वहां कई हिंसक हमले हुए हैं. 2013 में मोहम्मद मुरसी को राष्ट्रपति पद से अपदस्थ किए जाने के बाद सिनाई में पुलिस और सेना को निशाना बनाने की घटनाएं ज्यादा बढ़ी हैं. 2014 के नवम्बर में मिस्र के चरमपंथियों ने घोषणा कर दी थी कि वे आईएस के प्रति निष्ठा रखते हैं. उस समय से देश की सेना आतंकवादियों के खिलाफ अभियान चला रही है.

2013 से अब तक 700 से अधिक सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं तथा इनसे ज्यादा संख्या में आतंकवादी भी मारे गए हैं यानि सिनाई प्रांत में आतंकवादी हमले का अतीत है. किंतु इससे किसी हमले की विभीषिका कम नहीं हो जाती और इस हमले के पीछे का विचार इसे कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण बना देता है. वहाबी और सलाफी विचारधारा को संपूर्ण जगत पर कायम करने के पागलपन से भरे हुए आतंकवादी अलग पंथों या संप्रदायों के खिलाफ हमले कर रहे हैं. पिछले 26 मई को मध्य मिस्र में ईसाइयों से भरी बस पर आतंकवादियों ने हमला किया जिसमें 28 लोग मारे गए और 25 घायल हुए. इसके पूर्व 9 अप्रैल को अलेक्जेंड्रिया और टांटा में चचरे को निशाना बनाकर दो आत्मघाती हमले हुए जिनमें 46 लोगों की मौत हो गई. 

दुनिया भर में सूफी समुदाय के लोग आतंकवादियों का निशाना बन रहे हैं. पाकिस्तान से लेकर सीरिया, जॉर्डन, यमन और मिस्र समेत कई देशों में आतंकवादी लगातार इस समुदाय की मस्जिदों को लक्ष्य कर हमले कर रहे हैं. इसी साल फरवरी में आतंकवादियों ने सूफी समुदाय के संत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हमला किया था. इसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे. पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों को भी आतंकवादी निशाना बनाते रहे हैं. तो इस सवाल में गहराई से जाने की आवश्यकता है कि ये मुस्लिम समुदाय के ही तबके को क्यों निशाना बना रहे हैं? कट्टर वहाबी-सलाफी विचारधारा को मानने वाले आईएस की तरह के आतंकी संगठन सूफी इस्लाम को अपने लिए खतरा मानते हैं.

सूफी संप्रदाय खुदा को अपने भीतर ही तलाशने का विचार देता है. दरअसल, सूफी मत के लोगों के प्रार्थना के अलग तरीके, बड़े संतों के मकबरों के निर्माण और उनकी तीर्थयात्रा और आत्मा और खुदा को एक मानने के सिद्धांत को कट्टर सुन्नी इस्लाम को मानने वाले आतंकवादी संगठन इस्लाम के विरुद्ध मानते हैं. ये इन्हें बहुदेववादी मानते हैं, जबकि इस्लाम में सिर्फ अल्लाह की ही बंदगी करने की बात है. सूफी मत में संतों की भी पूजा करने की परंपरा है. आतंकवादी इसे मूर्ति पूजा या बुतपरस्ती मानते हैं. वे एक खुदा के अलावा किसी अन्य संत की पूजा करना, इस्लाम के सिद्धांतों के विपरीत मानते हैं.

हाल के समय में इस्लामी जगत में युवा वर्ग सूफीवाद की ओर आकर्षित हुआ है. भारी संख्या में युवा आतंकवादी संगठन छोड़कर इस धारा में शामिल हो गए. आतंकवादी संगठनों को लगता है कि अगर यह प्रवृत्ति जारी रही तो उनके अस्तित्व के लिए खतरा हो जाएगा. उन्हें आतंकवाद के लिए युवा मिलेंगे ही नहीं तो इनका अस्तित्व खत्म करो, या ऐसी दहशत पैदा करो कि युवा वर्ग या अन्य कोई इस विचारधारा की ओर आए ही नहीं. हालांकि सूफी आबादी दुनिया भर में करीब 1.5 करोड़ ही है.

लेकिन ये प्रभावी हैं. मिस्र में सूफी समुदाय ताकतवर स्थिति में है. मिस्र के राष्ट्रपति अल सीसी ने इस बर्बर हमले का बदला लेने की प्रतिबद्धता जताई है किंतु यही पर्याप्त नहीं है. इस्लाम के अंदर सभी विचारधाराओं के बीच संवाद चलाने तथा लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता है. यह कार्य इस्लाम के अंदर से ही होना चाहिए. सर्वसामान्य मुसलमानों के अंदर जब तक यह बात उतारी नहीं जाएगी कि इस्लाम केवल वहाबी और सलाफी विचारधारा तक सीमित नहीं है, सूफी मत इसी का अंग है, शिया इसी का अंग हैं, अहमदिया इसी संप्रदाय के हैं, वोहरा इसी समुदाय के हैं..तब तक आतंकवाद के पागलपन को खत्म करना मुश्किल होगा.

सच कहा जाए तो ये आतंकवादी इस्लाम को ही नष्ट करने की दिशा में काम कर रहे हैं. इसे रोकना और इस्लाम को उदारवादी साबित करना इसी समुदाय के लोगों का दायित्व है.

अवधेश कुमार


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