फल-सब्जी : इनका बेशहर हो जाना

Last Updated 28 Nov 2017 01:49:57 AM IST

शहरों को जिन और बातों के लिए खास तौर से जाना जाता है, उनमें से एक यह है कि यहां सिर्फ उपभोक्ता समाज रहता है.


फल-सब्जी : इनका बेशहर हो जाना

गांव-देहात या दूरदराज के इलाकों में शहरों में बसे लोगों की जरूरतों के मुताबिक चीजें बनाई या पैदा की जाती हैं, फिर उन्हें लाकर शहरों में बेचा जाता है. उत्पादक और ग्राहक का यह अंतर्सबंध कैसी विसंगति पैदा करता है, इसका एक नतीजा हाल में सामने आया है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने देश के शहरों में जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों की बढ़वार की अहम वजह यह खोजी है कि लोग अपने भोजन में फल-सब्जी का न्यूनतम इस्तेमाल करते हैं. विभिन्न शहरों में पोषक आहार पर हुए राष्ट्रव्यापी अध्ययन के हवाले से आईएमए ने दावा किया है कि भोजन में हरी पत्तेदार सब्जियों की जिस मात्रा की सिफारिश की जाती है, वह प्रति व्यक्ति रोजाना 40 ग्राम है, लेकिन देश में इसका औसत इस्तेमाल केवल 24 ग्राम प्रति व्यक्ति रोजाना है.
अहम सवाल है कि आखिर, शहरी भोजन में फल-सब्जी और मोटे अनाजों की मात्रा क्यों घट गई है. इस समस्या का रोचक संकेत यह है कि चूंकि शहरों में फल-सब्जियों की पैदावार नहीं हो रही, वे उस मात्रा में लोगों को नहीं दिखतीं-जितनी की जरूरत है, इसलिए उन्हें लेकर बच्चों और युवाओं में कोई प्रेरणा नहीं जगती. शहरी लोग खेत और खेती के बारे में भूल गए हैं, इसलिए फल-सब्जियों से उनका रिश्ता लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है. दिल्ली ही नहीं, बल्कि ज्यादातर शहरों में अब फल-सब्जियां भोजन के एक प्रेरक तत्व के रूप में मौजूद नहीं हैं, जिससे लोगों में उन्हें लेकर कोई खास रु चि नहीं बची है. इसकी की एक झलक पिछले साल इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन के सर्वेक्षण से मिली थी, जिसमें बताया गया था कि दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, कोलकाता जैसे शहरों में लोग जरूरत के मुकाबले आधी या उससे भी कम फल-सब्जियां खा रहे हैं. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक इसकी न्यूनतम खपत प्रति व्यक्ति पांच यूनिट होनी चाहिए पर इन शहरों में औसत खपत 3.5 है. इसमें 1.5 यूनिट फल हैं, और 2.5 यूनिट सब्जियां. सर्वेक्षण में शहरों में फल-सब्जियों की कम उपलब्धता और कम लगाव की बात कही गई थी.

ऐसा सिर्फ  भारत में नहीं हो रहा, बल्कि कई और देश भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. लिहाजा, दुनिया के कुछ देश इस दिशा में काम कर रहे हैं ताकि शहरों में लोगों का नाता फल-सब्जियों से बना रहे. एक उदाहरण इस्रइल का है. खेती को तकनीक से जोड़ने में मिसाल कायम कर चुके इस देश में शहरी खेती की एक नई अवधारणा का विकास किया गया है, जो ग्रामीण खेती से अलग है. असल में, वहां इस पर विचार किया गया कि कैसे शहरियों को फल-सब्जी से जोड़ा जाए. साबित करने की कोशिश की गई कि शहर का चाहे कोई भी कोना क्यों न हो, वहां खेती मुमकिन है. छतों पर, दीवारों पर, सार्वजनिक भवनों (स्कूलों, थिएटर आदि) और यहां तक कि सड़कों के बीच और रेलवे पटरियों के बगल में भी. शहरी खेती किसी तरह से परंपपरागत खेती की जगह नहीं ले सकती है, लेकिन इसकी पूरक जरूर बन सकती है. परंपरागत खेती की तुलना में शहरी खेती कम जगह लेती है. फसल के विकास में कम समय लगता है. भारी उपकरणों की जरूरत नहीं पड़ती. इस्रइल में शहरी खेती की विशेषज्ञ, हिब्रू यूनिर्वसटिी में लेक्चरर गैलिआ क्यूकीरमान का तो इस बारे में मत है कि अगर आज के आधुनिक शहरों में खेती नहीं की जा रही है, तो यह शहरी जनता के प्रति एक प्रकार का अपराध है.
असल में समझने की जरूरत है कि शहरी आबादी के आसपास के क्षेत्र में फसल उगाने से इसके उपयोग पर बेहद सकारात्मक असर पड़ता है. इससे खान-पान की आदतों में भी बदलाव होता है. जो आबादी हरी पत्तेदार सब्जियां ज्यादा उगाएगी, स्वाभाविक है कि वहां के बच्चे पिज्जा-बर्गर-पास्ता के बजाय फल-सब्जियां ज्यादा खाएंगे. यही नहीं, भोजन की बर्बादी भी बनिस्बत कम होगी. परंपरागत खेती की उपज और इसके उपभोग करने वालों में दूरी के कारण भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता. किसानों की मेहनत की इज्जत नहीं होती. कोई आश्चर्य नहीं है कि पश्चिमी यूरोप में परिवारों में 40 फीसद से अधिक भोजन फेंक दिया जाता है. इसकी वजह यही है कि वहां के शहरियों का भोजन से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है. ऐसे में शहरी खेती बदलाव का एक बड़ा आधार हो सकती है. यही नहीं, ट्रांसपोर्टेशन कम होने से वायु प्रदूषण भी घटेगा. हरे-भरे पेड़-पौधों की मौजूदगी से शहर की जलवायु में भी बदलाव आएगा.

अभिषेक कुमार


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