नस्ली भेदभाव : अपने वतन में बेवतन जैसे

Last Updated 11 Apr 2017 06:09:17 AM IST

गुजरात का गौरव कहे जाने वाले गीर राष्ट्रीय उद्यान की परिधि पर एक गांव है, जंबूर -जूनागढ़ से लगभग सौ किलो मीटर दूर, एक तरह से गुजरात के हृदय प्रदेश में स्थित.


नस्ली भेदभाव : अपने वतन में बेवतन जैसे

इस गांव में सिर्फ अफ्रीकी लोग रहते हैं. वे अपने देश से कोई पासपोर्ट या वीसा ले कर नहीं आए हैं. सदियों पहले जब यहां आए थे, तब पासपोर्ट और वीसा जैसी चीजें थीं ही नहीं. आज हमारी तरह वे भी इस देश के नागरिक हैं. गुजराती और हिंदी बोलते हैं. गुजरात में इन्हें सिद्दी कहा जाता है. हालांकि जंबूर के ये निवासी अफ्रीका की अपनी अधिकांश मौलिक परंपराएं भूल चुके हैं. लेकिन फिर भी उनके गायन या नृत्य शैली में कभी-कभी वहां की झलक मिलती है. जिस इलाके में वे बसे हैं, वह पहले गीर के घने वन प्रदेश का हिस्सा था. इसलिए यहां भी वे वनवासियों की ही तरह रहे. शायद इसलिए भी उनकी अधिकांश सांस्कृतिक परंपराएं यहां की आदिवासी परंपराओं के समान नजर आती हैं.  गुजरात का पर्यटन विभाग इनका नृत्य ‘खुश्बू गुजरात की’ नाम से पेश करता है. पर्यटकों को इनका गांव दिखाने भी ले जाता है.

लेकिन सिर्फ  अपना लोक नृत्य दिखाने से पेट नहीं भरता, कुछ ऊपरी कमाई जरूर हो जाती है. अब वे घने जंगल भी सिमट गए हैं, जो कभी इन वनवासियों का भरण-पोषण करते थे. इसलिए आम ग्रामीणों की तरह ये सिद्दी भी खेती-किसानी, मजदूरी या ड्राइवरी जैसे छोटे-मोटे काम किया करते हैं. सिद्दी सिर्फ  जंबूरा गांव में ही नहीं बसे. गुजरात में उनके ऐसे और भी कई छोटे-छोटे गांव-बस्तियां हैं. एक और गांव सिरवन है. सिरवन और जंबूरा में आबादी मिश्रित नहीं है. ये अपेक्षाकृत बड़े गांव हैं.

बताते हैं कि कोई तीन सौ साल पहले जूनागढ़ के नवाब किसी कुलीन अफ्रीकी युवती से दिल लगा बैठे. उसे ब्याह कर यहां लाए तो साथ में सेवा के लिए कुछ गुलाम भी भेजे गए. वही गुलाम बाद में यहां के जंगलों में सिद्दी आदिवासियों के रूप में बस गए. जंबूर के लोग कहते हैं कि वे ‘खुद भारत नहीं आए, बल्कि लाए गए. लेकिन अब यही हमारा वतन है, यही हमारी मातृभूमि है.’ यह एक किस्सा है. अफ्रीकी लोगों के भारत आगमन के बहुत सारे कारणों में एक ऐसा भी कुछ हुआ हो सकता है, पर उनके आने के प्रारंभिक साक्ष्य सातवीं शताब्दी से मिलने शुरू हो जाते हैं. अलग-अलग काल खंडों में नाविकों, गुलामों, धर्म प्रचारकों और व्यापारियों की तरह वे अलग अलग रूपों में आए. स्वतंत्र रूप से भी आए और पुर्तगाली तथा फ्रेंच व्यापारियों के साथ भी. बेंजेंटाइन साम्राज्य के पतन के समय भी आए और हर्ष साम्राज्य के विस्तार के समय भी. मध्य काल में आए और आधुनिक काल में भी.

सिर्फ  गुजरात ही नहीं, वे भारत के लगभग सभी पश्चिमी बंदरगाहों पर उतरे. आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हैं. कर्नाटक के अंकोला, येल्लपुरा, धारवाड़ और बेलगाम में इनकी अच्छी आबादी है. हैदराबाद में काफी बड़ी संख्या में सिद्दी आदिवासी हैं. तीन राज्यों-गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में उन्हें अनुसूचित जनजाति का दरजा प्राप्त है. मराठा योद्धाओं ने मुगल साम्राज्य से लोहा लेने के लिए इन्हीं सिद्दियों से गुरिल्ला युद्ध का कौशल सीखा था, और इन्हें अपनी सेनाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थीं. आज देश में उनकी आबादी पचास हजार से ज्यादा है.

सैकड़ों साल पहले आकर यहां की आबोहवा से रिश्ता जोड़ चुके ये लोग अपनी मूल पहचान कब की भुला चुके हैं. जैसे मॉरिशस और सूरीनाम में बस गए भारतवंशियों ने अब उन्हें ही अपना मुल्क बना लिया है, सिद्दी आदिवासियों का लगाव भी इस मिट्टी के प्रति किसी से कम नहीं. लेकिन अपने रंग-रूप की वजह से उन्हें आज भी यहां नस्ली दंश का अनुभव होता है. वे बताते हैं, इलाके के लोग हमें जानते-पहचानते हैं, हमारे वजूद से वाकिफ हैं.  लेकिन शहरों में अजीब-सा व्यवहार होता है. वे हमें हिकारत से देखते हैं. अपमानित करते हैं. हमें अपना मानने को तैयार नहीं. विश्वास ही नहीं करना चाहते कि हम भी इसी देश की संतानें हैं.

सिद्दी अफ्रीकी मुल्कों से आने वाले उन लोगों से बिल्कुल अलग हैं, जो आज यहां पढ़ाई या इलाज के लिए वीजा ले कर आ रहे हैं. लेकिन इन्हें भी अपने रूप-रंग की वजह से उन्हीं की तरह समझा जाता है. अजीब विडंबना है. सरकारी स्तर पर भारत में कभी रंगभेद को स्वीकार नहीं किया गया. हमेशा उसकी र्भत्सना की गई. सार्वजनिक तौर पर समाज भी रंगभेद का विरोध करता है. कोई नेता/राजनीतिक पार्टी इसे प्रश्रय देने की बात नहीं मानती. लेकिन कहीं तो कुछ है, जो चुभता है. कहीं तो कुछ है, जिसकी वजह से तथाकथित ऊंची  जाति वालों के बीच कोई हरिजन, या उत्तर भारतीयों के बीच कोई दक्षिण भारतीय या बड़े शहरों में जा कर एक सिद्दी या कोई भी आदिवासी असहज और कमतर महसूस करने लगता है. रंगभेद, वर्णभेद या नस्ल भेद की मानसिकता सिर्फ  शब्दों से ही नहीं व्यक्त होती. बिना कहे भी हावभाव और व्यवहार से समझ में आती है. ग्रेटर नोएडा या उस जैसी घटनाएं उस मानसिकता की पुष्टि करती हैं.

यह भी विडंबना ही है कि गांधी इसी देश के थे, वकालत की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद दक्षिण अफ्रीका ही गए और रंगभेद के खिलाफ उनका संघर्ष 1906 से ही शुरू हुआ. उस संघर्ष के एक सौ दस साल बाद यहां भारत में कुछ अफ्रीकी मूल के लोग रंगभेद और नस्लभेद की शिकायत कर रहे हैं. ग्रेटर नोएडा वाली घटना पर भारत सरकार ने त्वरित कार्रवाई करके कुशल राजनय का परिचय दिया. ऐसी बातों का दुनिया भर में हमारी छवि पर असर पड़ता है. हम यह भी नहीं कह सकते कि जिन्हें यह देश रंगभेदी लगता हो, देश छोड़ कर जाएं क्योंकि यहां से छोड़ कर वे जहां जाएंगे, वहां यहां के रंगभेदी व्यवहार का किस्सा सुनाएंगे. वहां कुछ भारतवंशी भी रहते हैं. महत्वपूर्ण यह नहीं कि हम किसके आरोप का कैसा जवाब देते हैं,  महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम अपने आचरण पर किसी भी तरह से विचार करना चाहते हैं.

बाल मुकुंद सिन्हा
लेखक


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