विश्लेषण : बीस मार्च की राज्य सभा
20 मार्च की तारीख संसद के इतिहास में एक संदर्भ के रूप में याद की जाएगी. इसे दृश्य के रूप में इस प्रकार देखा जा सकता है.
विश्लेषण : बीस मार्च की राज्य सभा |
सभापति : प्रश्न संख्या 188. प्रश्नकर्ता मौजूद नहीं है. प्रश्न का जवाब सदन पटल पर रखा जाए. क्या मंत्री उपस्थित है? जयराम रमेश: महाशय, मंत्री मौजूद नहीं है. सभापति: यह अकल्पनीय है ! व्यवधान.. प्रश्न संख्या 189. प्रश्नकर्ता मौजूद नहीं है. जयराम रमेश, महाशय एक केंद्रीय मंत्री मौजूद नहीं है...व्यवधान. आनंद शर्मा: महाशय, एक भी केंद्रीय मंत्री मौजूद नहीं है. सभापति: जी हां, ये मैं देख रहा हूं. क्या जवाब सदन पटल पर रखा जा सकता है?..व्यवधान..प्रश्न करने वाले भी नहीं, मंत्री भी नहीं.
आनंद शर्मा: महाशय, आज तो सदन में एक भी केंद्रीय मंत्री मौजूद नहीं है.
सभापति: यह सूरेतहाल तो अच्छी नहीं है.
जयराम रमेश: क्या यह आने वाले दिनों के हालात का एक नजारा है?..व्यवधान....
सभापति, प्रश्न संख्या 190. प्रश्न करने वाले सदस्य मौजूद नहीं है, मंत्री मौजूद नहीं है...व्यवधान... प्रश्न संख्या-191
श्री शुखेन्दू शेखर राय, महाशय, इसके लिए सरकार के खिलाफ निंदा पत्र जारी करना चाहिए. गुलाम नबी आजाद, यह है अधिकतम मंत्री, न्यूनतम शासन!
सभापति: प्रश्न संख्या 191; प्रश्न करने वाले सदस्य मौजूद नहीं है. प्रश्न का जवाब सदन पटल पर रखा जाए. व्यवधान..सभापति : प्रश्न का जवाब सदन पटल पर रखा जा रहा है. कोई पूरक प्रश्न नहीं.
सदन की कार्यवाही दोपहर दो बजे तक के लिए स्थगित की जाती है. संसद का माहौल, अंदरूनी कामकाज के हालात जो बन रहे हैं, उनके बारे में लोग जब पढ़ेंगे तो उन्हें इतिहास रहस्यों जैसे लगेंगे. उस हालात पर लोग हैरानी जाहिर करेंगे कि चप्पे-चप्पे पर नजर रखने का दावा करने वाली बड़ी बड़ी कंपनियों के अनिगनत मीडिया और उसके सैकड़ों मुलाजिम, जिन्हें तब भी पत्रकार कहा जाता था, कैसे संसद जैसे खुले मंच की सच्चाइयां सामने आने से रह जाती है. देश की आवाम के लिए संसद में सबसे भरोसेमंद आंख व कान मीडिया वालों को माना जाता है. ऊपर में सभापति और सदस्य जो कह रहे हैं, वह 20 मार्च को राज्य सभा में 12 बजकर 40 मिनट से दोपहर 1 बजे के बीच चली कार्यवाही का दृश्य है. उस दिन इस दौरान के हालात के सभापति हामिद अंसारी ने यदि अंग्रेजी में ‘एक्सट्राऑर्डिनरी’ हालात शब्द का इस्तेमाल किया है तो ये सभापति की मर्यादा की सीमा है. वरना इस हालात को संसदीय लोकतंत्र पर काली छाया के रूप में ही शायद देखा जा सकता है. हैरान करने वाली बात तो ये हैं कि किसी सदन के लिए प्रश्नकाल सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यवाही के रूप में मानी जाती है. जब संसद खचाखच भरी होती है. यानी संसद सदस्यों और मंत्रियों के अलावा ऊपर की दीर्घाओं में मीडिया और दूसरे लोग जमा होते हैं.
20 मार्च 2017 के दिन उपरोक्त विवरण प्रश्न करने वाले संसद सदस्यों की अनुपस्थिति और मंत्रियों की गैर मौजूदगी दिखा रहे हैं. जिन सदस्यों ने सवाल किए थे उनके नाम यहां नहीं दिए जा रहे हैं क्योंकि ऐसा करने से एक खतरा ये होता है कि इस हालात से जुड़े जो सवाल उभरते हैं वे सदस्यों के व्यक्तिगत आचरण एवं लापरवाही के इर्द-गिर्द सिमट सकते हैं. मंत्रियों के नामों की जगह केवल इतना उल्लेख किया जा सकता है कि ये सवाल जल परिवहन मंत्रालय, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय और ग्रामीण विकास मंत्रालय से संबंधित थे. लेकिन प्रश्नकाल की स्थिति की ये झलक भर हैं. 20 मार्च को प्रश्न करने वाले सदस्यों के नदारद होने का सिलसिला प्रश्न संख्या 186 से ही शुरू हो गया था. यदि संसद में प्रश्नकाल और बहसों के इतिहास पर नजर डालेंगे तो यह पाया जाता है कि प्रश्नकर्ता यानी संसद सदस्यों के प्रश्नकाल के समय गायब होने का इतिहास बहुत पुराना पड़ चुका है.
विधान सभाओं में भी ऐसा ही होता रहा है. संसदीय मंचों के प्रतिनिधियों के प्रश्न पूछे जाने के वक्त गायब होने और उसके कारणों के बारे में इतिहास में लंबे-चोड़े ब्योरे जमा हो चुके हैं. लेन-देन के विवरण भी सामने आ चुके हैं. तभी राज्य सभा समेत दूसरे सदनों में ये व्यवस्था की गई कि प्रश्न पूछने वाले सदस्य यदि मौजूद नहीं हैं, तब भी मंत्री प्रश्नकाल में तारांकित प्रश्न का जवाब देंगे. उस प्रश्न पर दूसरे सदस्य पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं. लेकिन 20 मार्च को तो हैरानी की बात यह हुई कि एक-के-बाद एक प्रश्न पूछने वाले सदस्य भी मौजूद नहीं थे और मंत्री भी मौजूद नहीं थे. और देश को यह खबर भी उस रूप में नहीं लगी.
प्रधानमंत्री ने राज्य सभा के इस हालात के मद्देनजर दूसरे दिन भाजपा संसदीय दल में कहा कि संसद में सदस्य एवं मंत्री अपनी मौजूदगी सुनिश्चित करें. लेकिन पूरा मसला प्रश्नकाल का समय बदलने, प्रश्नकाल के दौरान सदस्यों की उपस्थिति नहीं होने के बावजूद मंत्रियों का जवाब सदन पटल पर रखे जाने जैसी व्यवस्था करने भर से नहीं जुड़ा है. अपने अनुभव से मैं ये कह सकता हूं कि पिछले पच्चीस वर्षो में संसद में गुणों के अंतर पर इस मायने में स्थिति नहीं सुधरी है कि वे भारतीय समाज में जो आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थितियां बन रही है, वे उसे आईने के रूप में दिखें. हमने संसदीय इतिहास में ये देखा है कि छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसी विधान सभाओं में गोपनीय बैठकें की गई.
गोपनीय का अर्थ यह कि उस दौरान मीडियाकर्मी उपस्थित नहीं थे और दर्शक दीर्घाओं में भी जाने की मनाही थी. लेकिन राज्य सभा में तो 20 मार्च को कोई मनाही नहीं थी फिर भी यह गोपनीय बैठक इस रूप में दिखती है कि उसकी जानकारी लोगों तक नहीं पहुंची. संसद की कार्वाही की रिपोर्टिग का उद्देश्य संसदीय मंचों के प्रति आम लोगों को क्रमश: संवेदनशील बनाने का होता है. यदि संसदीय रिपोर्टिग लोगों को इस हद तक संवेदनहीन बनाती है कि कोई अप्रत्याशित घटना हो जाती है तो उस पर लोगों की निगाह नहीं जाती है तो ये संसदीय लोकतंत्र के हालात के बारे में विचार करने के लिए बाध्य कर रहा है.
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