भारत की आपत्ति जायज
भारत का ‘ग्लोबल साउथ’ (विकासशील, कम विकसित या अविकसित देश) के लिए सालाना 250 अरब अमेरिकी डॉलर जलवायु वित्त पैकेज को खारिज करना बिल्कुल जायज कदम है।
भारत की आपत्ति जायज |
जलवायु खतरों से निपटने के लिए यह रकम काफी कम है और भारत के साथ ही विशेषज्ञों ने इसे अनुचित बताया है। विशेषज्ञों ने इसके तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाए हैं। उनका मानना है कि राशि जुटाने की अवधि 2035 की बजाय 2030 होनी चाहिए। साथ ही यह रकम ज्यादा होनी चाहिए।
जलवायु खतरा किस कदर गंभीर हो चला है, यह बताने की जरूरत नहीं है। विश्व के लगभग तमाम देश इस खतरे से जूझ रहे हैं और इससे लड़ने की जुगत में दिन-रात एक किए हुए हैं। लाजिमी है कि इस बड़ी लड़ाई से लड़ने के वास्ते महज हर वर्ष 250 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि बेहद कम है और इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला। इसके लिए तत्काल 500 अरब डॉलर जुटाए जाने की जरूरत है। चिंता की बात यह भी है कि मौजूदा जलवायु कोष महज 100 अरब डॉलर का है।
जबकि इसके लिए समग्र तौर पर 1.3 अरब डॉलर की वास्तविक जरूरत है। बहरहाल, भारत की आपत्ति का कई देशों (नाइजीरिया, मलावी, बोलीविया) ने भले समर्थन किया है, मगर ये छोटे देश हैं जिनकी आवाज को हमेशा से अनसुना किया गया है। दरअसल, विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से हमेशा से पीछे हटते रहे हैं, जबकि पर्यावरण को सबसे ज्यादा क्षति इन्होंने ही पहुंचाई है। विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने में विफल रहे हैं।
इसके उलट वे ग्लोबल साउथ पर अनर्गल बोझ डालने का दबाव बनाते रहते हैं। स्वाभाविक है कि अगर इतने बड़े मंच में अनैतिक तरीके से समझौते को अंगीकार करने की सजिश रची जाएगी तो जलवायु परिवर्तन से निपटने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। सिर्फ अपनी बात रखने और उसे मनवाने की संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप-29) की कवायद वाकई अगंभीर नजरिये को परिलक्षित करती है।
भारत जैसे विशाल देश को इस मंच पर अपनी बात नहीं रखने देना कहीं से भी ईमानदार और पारदर्शी आचरण नहीं कहा जाएगा। अगर सभी देशों को जलवायु खतरे से वाकई सच्चे दिल से लड़ना है तो उन्हें ऐसे धत् कर्म करने से बचना होगा। विकसित देशों को बड़ा दिल दिखाने से ही समस्या का समाधान होगा।
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