वैश्विकी : ट्रंप के मंत्रिमंडल का डर
अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मंत्रिमंडल ने लगभग आकार ग्रहण कर लिया है। उन्होंने ऐसे लोगों का चयन किया है, जो उनके प्रति निष्ठावान हैं तथा घरेलू एवं विदेश मोच्रे पर उनके एजेंडे से सहमत हैं।
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नये मंत्रिमंडल को लेकर अमेरिका ही नहीं, बल्कि उसके सहयोगी देशों में भी आशंका और बेचैनी का माहौल है। स्पष्ट है कि चुनाव में भारी जीत के बावजूद ट्रंप को अमेरिका के अदृश्य सत्ता-प्रतिष्ठान और मुख्य धारा की मीडिया का समर्थन नहीं मिल रहा है। इन तबकों ने ट्रंप के खिलाफ अभी से मोच्रेबंदी शुरू कर दी है।
शुरुआती तौर पर ट्रंप की ओर से चुने गए कुछ मंत्रियों को निशाना बनाया जा रहा है। सबसे अधिक आलोचना नव-नियुक्त राष्ट्रीय खुफिया निदेशक तुलसी गबार्ड और अटॉर्नी जनरल मैट गेट्ज की हो रही है। अभी से यह कवायद शुरू हो गई है कि सीनेट द्वारा इनकी नियुक्ति को नामंजूर कर दिया जाए। तुलसी कई वर्ष पूर्व डेमोक्रेटिक पार्टी में एक उभरता हुआ सितारा मानी जाती थीं। अमेरिकी रिजर्व सेना में ले. कर्नल के रूप में कार्यरत तुलसी स्वयं युद्ध छिड़ जाने की विरोधी हैं। वह अन्य देशों में हस्तक्षेप करने वाली विदेश नीति की भी आलोचक हैं। एक ओर वह इस्लामी आतंकवाद की विरोधी हैं तो वहीं उनका मानना है कि पश्चिमी एशिया के देशों में अमेरिका ने मनमाने तौर पर हस्तक्षेप किया जिससे वहां हालात पहले से भी खराब हो गए।
राष्ट्रीय खुफिया निदेशक के रूप में तुलसी अमेरिका की सबसे शक्तिशाली महिला के रूप में उभरेंगी। वह देश की सीआईए और एफबीआई सहित सत्रह खुफिया एजेंसियों की मुखिया के रूप में काम करेंगी। उनकी जिम्मेदारी होगी कि प्रति दिन राष्ट्रपति ट्रंप को देश-दुनिया के हालात के बारे में खुफिया जानकारियों का सारांश पेश करें। इस तरह वह राष्ट्रपति के लिए आंख-कान का काम करेंगी। यह विशेषाधिकार अमेरिका के विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री को भी हासिल नहीं है। इसीलिए तुलसी की युद्ध विरोधी नीतियों का असर यूरोपीय देशों पर दिखाई देने लगा है। इसी नये माहौल में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोलज ने रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन से यूक्रेन मसले पर दो साल के अंतराल के बाद बातचीत की। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के लिए यह खतरे की घंटी थी। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि अब पुतिन से बातचीत करने के लिए पश्चिमी नेताओं में होड़ लग जाएगी। उल्लेखनीय है कि जो पश्चिमी देश रूस को युद्ध के मोच्रे पर पराजित करने की मुहिम चला रहे थे, वे अमेरिकी चुनाव के बाद शांति की बात करने लगे। यूरोपीय देशों के लिए एक नई समस्या सैन्य संगठन नाटो के भविष्य को लेकर भी है। ट्रंप नाटो में अमेरिकी भूमिका को सीमित करना चाहते हैं। इन हालात में यूरोपीय देशों को नाटो के लिए अपनी ओर से अधिक संसाधन मुहैया कराने होंगे। पहले से ही आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे इन देशों के लिए यह चुनौती होगी।
तुलसी गबार्ड की युद्ध विरोधी नीतियों का असर चीन और पश्चिम एशिया के मामलों पर भी पड़ेगा। यद्यपि राष्ट्रपति ट्रंप पश्चिम एशिया में इस्रइलू को अधिक समर्थन देने तथा चीन के खिलाफ सख्त आर्थिक और सैनिक रवैया अपनाने के समर्थक हैं, लेकिन उनका प्रशासन युद्ध या संघर्ष का विस्तार न होने देने की नीति अपनाएगा। जहां तक भारत का संबंध है तो अमेरिका में खालिस्तान समर्थक तत्वों पर धीरे-धीरे लगाम लगेगी। हो सकता है कि गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे खालिस्तानी नेता अमेरिका छोड़कर कनाडा में शरण लें। अमेरिका में भारतीय खुफिया एजेंसी के खिलाफ चल रहे मुकदमे के भी आने वाले दिनों में सुलझने की संभावना है। कुल मिलाकर बाइडन प्रशासन के कार्यकाल में शुरू हुए यूक्रेन और पश्चिम एशिया के संकट का विस्तार रुक गया है। साथ ही, कूटनीति और वार्ता के विकल्प को बल मिला है। देखना है कि यह आशाजनक शुरुआत पूरी तरह शांति में बदलती है, या नहीं।
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