फिजूल का आरोप
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश (Jairam Ramesh) के आरोप पर केंद्रीय चुनाव आयोग का सख्त रवैया न्यायोचित ही कहा जाएगा। रमेश ने आरोप लगाया था कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 150 से ज्यादा जिलाधिकारियों (डीएम -DM) से बात किया।
फिजूल का आरोप |
रमेश का आशय इसी ओर इशारा करता है कि देश के गृह मंत्री चुनाव में हार को देखते हुए जिलाधिकारियों को मतगणना में हेर-फेर करने का दबाव बना रहे हैं।
स्वाभाविक तौर पर देखें तो यह काफी ज्यादा गंभीर आरोप हैं, मगर हकीकी रूप से इन आरोपों में कोई दम इसलिए नहीं दिखता है क्योंकि रमेश के पास इस आरोप का कोई मजबूत साक्ष्य नहीं है। यही वजह है कि उनके इस ‘रेडिमेड’ आरोप पर केंद्रीय चुनाव आयोग ने तुरंत संज्ञान लिया और उनसे इस सतही आरोपों का सबूत मांग लिया। हवा-हवाई तरीके से बात करना इतने बड़े और अनुभवी राजनेता को कतई शोभा नहीं देता है।
ठीक-ठाक तरीके से मनन करें तो राजनीति में आरोप लगाना हमेशा से हर नेताओं के लिए ‘बाएं हाथ का खेल’ सरीखा रहता है। मगर बात देश के गृह मंत्री की और उस संस्था (चुनाव आयोग) की है तो इसमें पूरी साफगोई और सच्चे तथ्य तो सार्वजनिक होने बेहद जरूरी हैं। आरोप लगाकर भाग निकलने की प्रवृत्ति से हर किसी को बचना चाहिए। राजनीति की हाल के वर्षो में दुर्गति की एक अहम वजह यही है कि इसने भरोसा खोया है।
हम सब इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि साख बनने में वर्षो लग जाते हैं, मगर इसे धराशायी होने में क्षण भर का समय भी पर्याप्त है। होना तो यही चाहिए था कि रमेश पूरे सबूत के साथ अपनी बात कहते। इससे उनकी और उनके साथ-साथ उनकी पार्टी की भी विसनीयता भी मजबूत होती।
नि:संदेह आयोग का कहना तार्किक मालूम पड़ता है कि इस तरह के पोस्ट से चुनाव प्रक्रिया पर शंका पैदा होती है और आम जनता भी भ्रमित होती है। फिलहाल, रमेश के आरोप लगाने और चुनाव आयोग से सबूत सामने लाने की बात वहीं तक सीमित है।
सभी को इस बात पर ऐतबार तो करना ही चाहिए कि 44 दिनी चुनाव कार्यक्रम छिटपुट हिंसा और विवाद के बीच शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो गया। जहां तक निष्पक्षता की बात है तो यह हर राजनीतिक पार्टियों और संवैधानिक संस्थाओं का कर्तव्य है कि वह इसे कितनी इज्जत बख्शता है। हां, शक का इलाज तो वाकई आज कोई नहीं खोज सका है।
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