संवेदनशील हों अदालतें
महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े मामलों में अदालतों से संवेदनशील होने की उम्मीद की जाती है। सर्वोच्च अदालत ने यह बात हत्या के मामले में पति व सास की सजा बरकार रखते हुए कही।
संवेदनशील हों अदालतें |
अभियुक्त द्वारा अपने पक्ष में सबूत पेश करने में असमर्थ होने पर अदालत ने उसे दोषी ठहराया। ट्रायल कोर्ट व उत्तराखंड हाई कोर्ट ने बलवीर सिंह को अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा सुनाई थी। दोषी पति के अनुसार वह पत्नी को अस्पताल ले गया था, जहां उसे मृत बता दिया गया। इस पर अदालत ने कहा था कि संदिग्ध परिस्थिति में हुई मौत पर शव परिवार को नहीं सौंपा जाता। डॉक्टर केस पुलिस के सुपुर्द कर देते हैं।
मृतका के परिजनों की नाराजगी के बाद पोस्टमार्टम किया गया था। एफआईआर भी अदालत के कहने के बाद दर्ज की गई थी। अदालत ने यह भी पूछा कि वारदात के वक्त दोषी कहां था, इसका सुबूत पेश नहीं किया गया। 1997 में इनकी शादी हुई थी, दस साल बाद पत्नी की हत्या हो गई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देश में हत्याओं के मामले साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं। प्रति दिन 80 से अधिक हत्याओं के मामले दर्ज किए जाते हैं। इनमें आपसी रंजिश से लेकर पारिवारिक झगड़े तथा ऑनर किलिंग भी शामिल हैं। एक अन्य मामले में बंडा में हुए चर्चित एनआरआई हत्याकांड में मृतक की पत्नी को सजा-ए-मौत दी गई है।
2016 में रमनदीप कौर ने अपने प्रेमी गुरप्रीत सिंह के साथ मिलकर पति के सिर पर हथौड़े से वार किया। उसके प्रेमी ने चाकू से गला रेता। उसे उम्रकैद की सजा मिली है। आवेश में, क्रोधवश या बदले की भावना के चलते दंपति हत्या जैसा नृशंस कदम उठा लेते हैं, जिसे रोकना असंभव है, लेकिन विवाहेतर संबंधों के चलते जीवन साथी को मारने की साजिश सोची-समझी रणनीति होती है। ऐसे में कड़ी सजा लाजिमी है।
छोटी सी बात है कि जब दांपत्य में किसी कारण खटास आ रही हो तो संबंध विच्छेद का रास्ता सबसे आसान होता है। पति या पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए कत्ल करना निहायत बचकाना तरीका है। अहम तथ्य यह भी है कि पुलिस को ऐसे मामलों पर संजीदगी बरतनी चाहिए। साक्ष्यों को छोड़ना या उनसे छेड़छाड़ होने देना विशुद्ध लापरवाही का मामला है। पहले कई दफा अदालतें इस पर पुलिस को हिदायतें दे चुकी हैं। इससे केस कमजोर पड़ता है, और दोषियों को लाभ मिल जाता है।
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