सावधानी की जरूरत
अंतत: बिहार की नीतीश सरकार ने अपना बहुचर्चित जाति सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर दिए। इन आंकड़ों के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ से कुछ अधिक है, जिसमें से अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36 फीसद सबसे बड़ा सामाजिक वर्ग है।
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इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग 27.13 फीसद है। यानी दोनों की कुल हिस्सेदारी 63 फीसद है। अनारक्षित श्रेणी से संबंधित लोगों की आबादी 15.52 फीसद है। अब बिहार सरकार इन आंकड़ों से समाज के जो कमजोर जाति वर्ग के लोग हैं, उनको ध्यान में रखकर उनके हित की योजनाएं बनायी जा सकेंगी।
इस जाति गणना की जो सैद्धांतिकी रही है वह यह है कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी। सुनने में तो यह मधुर वाक्य प्रतीत होता है, लेकिन इसके क्रियान्वयन की कल्पना करते ही जाति संघर्ष के अनेकानेक अप्रिय दृश्य बनने लगते हैं।
बहरहाल, यह माना जाए कि बिहार में हुई जाति जनगणना की यह शुरुआत भविष्य में आर्थिक और सामाजिक रूप से अति पिछड़े वर्ग को वांछित शक्ति प्रदान करने में मिलेगी तथा आर्थिक विषमता रहित सामाजिक समानता के न्याय की अवधारणा पूरी होगी तो यह बहुत ही शुभ बात होगी, लेकिन अभी यह सिर्फ कल्पना ही है। लेकिन इस घटना ने दो स्थितियां निर्णायक तौर पर स्पष्ट कर दी है।
पहली यह कि डॉ. अम्बेडकर ने जिस जातिविहीन समाज का सपना देखा था और एक सीमा के बाद आरक्षण की समाप्ति पर समरस समाज की कल्पना की थी, वह हाल फिलहाल ध्वस्त हो गई है। यानी जातिविहीन समाज का सिद्धांत पूरी तरह पराजित हो गया है। इसका दूसरा बिन्दु मौजूदा टकरावों की स्थापना को लेकर संभावित जातीय टकरावों का है, जो इसके शुभ परिणाम देख रहे हैं, वे जातिगत राजनीति के वर्तमान में उभर कर आए व्यावहारिक पहलू को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं।
इसका अगला महत्त्वपूर्ण पहलू प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया में सामने आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि जाति जनगणना का यह शिगूफा हिन्दुओं को विभाजित करके भारत को कमजोर करना है।
मोदी के सामने सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी होगी कि वे सनातन की चादर तले पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को साधने और एकजुट करने का जो प्रयास कर रहे हैं उसमें बाधा पहुंचेगी। बहरहाल, जाति जनगणना की यह शुरुआत, अगर ठीक से नहीं संभाला गया तो भविष्य के जातीय संघर्ष के रूप में बहुत घातक सिद्ध हो सकती है।
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