अनाथों को जीने दो
अनाथ (Orphans) तो अनाथ होता है, उसके मां-बाप की मृत्यु कैसे भी हुई हो; सर्वोच्च अदालत (Supreme Court) ने केंद्र से यह कहा। अनाथ बच्चों को पीएम केयर्स फंड सहित कोविड योजनाओं का लाभ देने की संभावनाएं तलाशने को भी कहा।
अनाथों को जीने दो |
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा कि अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने उन अनाथ बच्चों के लिए सही नीति बनाई है, जिनके माता-पिता की मौत कोविड महामारी के कारण हो गई थी, लेकिन किसी दुर्घटना या बीमारी से माता-पिता की मृत्यु होने से अनाथ हुए बच्चों को भी इन योजनाओं के लाभ दिए जाने चाहिए। अदालत ने याचिकाकर्ता पालोमी पावनी शुक्ला की याचना पर सुनवाई करते हुए इस बाबत विस्तृत हलफनामा पेश करने का निर्देश भी दिया।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार, देश में तकरीबन डेढ़ लाख बच्चे अनाथ के तौर पर उनके पोर्टल पर बीते साल तक पंजीकृत थे, मगर जमीनी स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं का मानना है कि नब्बे फीसद अनाथ इस पंजीकरण तक पहुंचते ही नहीं। हकीकत तो यह है कि हम बेसहारा बच्चों की मदद में असफल साबित होते हैं। अनाथ बच्चों को सड़कों पर मारा-मारा फिरते देखा जाता है, जिन्हें भिखारियों के गिरोह दो वक्त के भोजन के नाम पर चंगुल में फंसा लेते हैं।
समाजसेवी संस्थाएं कहती रही हैं कि बिन मां-बाप के बच्चों को नशे के जाल में भी फंसाया जाता है। इनके जरिए नशे का धंधा भी चलाया जाता है। शिक्षा के अधिकार से अभी भी ढेरों बच्चे वंचित हैं। राज्य सरकारों के लिए चुनौती है कि अनाथ बच्चों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करें। उन्हें सुरक्षा भी प्रदान की जाए। अनाथ सिर्फ अनाथ है। चाहे उसके मां-बाप कोविड से मरे हों या किसी अन्य कारण से। उसके समक्ष चुनौतियां समान होती हैं। खाने, रहने, पहनने और पढ़ाई के लिए वे लाचार हो जाते हैं।
केंद्र सरकार का दायित्व है कि अनाथ बच्चों के लिए सुविधापूर्ण जीवन यापन की व्यवस्था करे। वर्तमान में वे मतदाता नहीं हैं इसलिए उन्हें भाग्य भरोसे छोड़ना संवेदनहीनता है। वे भविष्य की धरोहर हैं और देश की उम्मीदें भी। कच्ची उम्र में पालकों का साया उठना ही उनके लिए भीषण कष्टदायी है। इसलिए सरकार को दायित्व से मुंह फेरने या बहानेबाजी से बचना चाहिए। सरकार अदालत को सिर्फ जवाब ही न दे, बल्कि ऐसा खाका भी तैयार हो जो हर अनाथ का सहारा साबित हो सके।
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