राजद्रोह कानून पर पुनर्समीक्षा का विचार सही

Last Updated 14 Sep 2023 01:40:35 PM IST

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने राजद्रोह कानून (Treason Law) की पुनर्समीक्षा का काम संविधान पीठ को सौंप दिया है।


पुनर्समीक्षा का विचार सही

न्यायालय को यह लगा कि 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के इसी मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ की सुनवाई-प्रक्रिया और उसके दिए फैसले पर नई परिस्थितियों में पुनर्विचार की जरूरत है। तब व्यक्ति की समानता को सुनिश्चित करने वाले संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत नहीं, बल्कि अनुच्छेद-19 के तहत विचार किया गया था, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है। इसलिए तीन सदस्यीय पीठ ने केंद्र सरकार के प्रस्तावित नए विधेयक के कानून बन जाने तक इंतजार करने की उसकी सलाह नहीं मानी। इसमें दो बातें थीं-एक तो नया कानून एक नई तारीख से लागू होता और उससे पुराने मामलों पर विचार नहीं होता।

दूसरे, पुराने कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा करने की जरूरत है। इसलिए कि सन् 2014 से 2021 तक राजद्रोह के मामले में 428 मामले दर्ज हुए थे और 634 लोग गिरफ्तार किए गए थे। इनमें दोषसिद्धि बहुत कम थी-2019 में महज 3.3 फीसद तो 2020 में 33.3 फीसद। फिर, इन्हें लेकर सरकार की काफी लानत-मलामत की जाती रही है। तो सर्वोच्च अदालत को पुराने कानून पर इस नजरिए से भी सोचना था।

नए विधेयक में देश की एकता-अखंडता को खतरे में डालने, अलगाववाद को उकसाने वाले और दूसरे देश से मिल कर साजिश रचने वाली कारगुजारियां देशद्रोह के दायरे में रखी गई हैं। और इसकी अधिकतम सजा तीन साल से बढ़ा कर न्यूनतम सात साल से लेकर अधिकतम उम्रकैद तक रखी गई है। इसे संज्ञेय यानी गंभीर अपराध बनाया गया है। पुलिस इसके आरोपितों को कभी भी गिरफ्तार कर सकती है।

अलबत्ता, नए विधेयक में सरकार के कामों की लिखित या वाचिक आलोचनाओं को देशद्रोह के दायरे से हटा दिया गया है। इसको परिभाषित करने की कोशिश की गई है। यह रेखांकित करने योग्य महत्त्वपूर्ण अंतर है। हालांकि इसके नए विधेयक के प्रावधान कुछेक को पुराने से भी कड़े लगते रहे हैं। तो इसका उत्तर यही है कि मौजूदा भारत औपनिवेशिक काल का स्थैतिक या एकरेखीय नहीं रह गया है। विभाजन के साथ मिली आजादी के बाद पैदा हुई अलगाववादी-उग्रवादी व आतंकी परिस्थितियों की रोकथाम के लिए भारत को ऐसे कानून की वक्ती दरकार है।



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