डरावना और शर्मनाक
गणतंत्र दिवस पर देश की राजधानी दिल्ली में जो कुछ भी हुआ वह जितना शर्मनाक था, उतना डरावना भी।
डरावना और शर्मनाक |
कुछ घंटों के लिए समूची दिल्ली जैसे उपद्रवी और अराजक तत्वों के हिंसक तांडव में फंस गई। पुलिस पर हमले हुए, जगह-जगह बैरिकेड तोड़े गए, लाल किले पर उस तरह हमला हुआ जैसे कोई विदेशी हमलावर करता है। राष्ट्रीय ध्वज का अपमान हुआ और वहां एक धर्म विशेष का झंडा फहरा दिया गया। इस पूरे परिदृश्य में एक ओर उपद्रवियों की पत्थर, लाठी और ट्रैक्टरों को हथियार बनाने वाली आक्रामकता दिखी तो दूसरी ओर पुलिस की जबरदस्त लाचारी और संयम भी दिखा। सैकड़ों पुलिसवाले घायल हो गए।
कुछ की हालत गंभीर भी बताई जा रही है। यह समूचा उपद्रव उन किसानों के नाम पर हुआ जो दो महीनों से कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। किसानों की जिद सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की पूरी तरह से अवज्ञा करना दीगर विषय है, लेकिन यह सचमुच शर्मनाक था कि जिन किसान नेताओं ने पुलिस के साथ समझौते के तहत शांतिपूर्ण ट्रैक्टर मार्च निकालने की दुहाई दी थी और पुलिस की आशंका के बावजूद यह जिम्मेदारी ली थी कि वे किसी भी तरह की हिंसा नहीं फैलने देंगे।
अब वही किसान नेता बहुत ही बेशर्मी से इस समूची हिंसा से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। किसी भी किसान नेता ने इतना नैतिक साहस नहीं दिखाया कि इस कांड की जिम्मेदारी लेता और इसे अपने आंदोलन की विफलता बताता। इसके विपरीत सभी ने दोमुंहा चरित्र अख्तियार किया और समूची हिंसा का जिम्मेदार सरकार को ठहरा दिया। विपक्षी नेताओं की भूमिका और अधिक शर्मनाक थी जिन्होंने बिना लाग-लपेट के सरकार को जिम्मेदार ठहराया और उन किसान नेताओं को पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया जिनकी नेतृत्व विफलता के चलते किसान आंदोलन डरावनी गुंडागर्दी में बदल गया।
यह सरकार की कमजोरी है कि वह लगातार झुकती गई है। अगर वह इससे ज्यादा झुकती है, तो न केवल सरकार की बल्कि लोकतंत्र की नींव भी हिल जाएगी। सरकार को हिंसक तत्वों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई तो करनी ही चाहिए और भविष्य में किसी भी सूरत में इस तरह की उपद्रव की पुनरावृत्ति नहीं होने देनी चाहिए। अब आगे देखना है कि सरकार इन उपद्रवी और अराजक तत्वों के विरुद्ध क्या कार्रवाई करती है?
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